।।श्रीदत्तपुराणम्।।

।।श्रीदत्तपुराणम्।।

श्रीदत्तपुराण की रचना श्रीगंगाजी के किनारे ब्रह्मावर्त में सन १८९२ ईस्वी में. हुई। इसकी टीका का निर्माण सात साल बाद श्री सरस्वतीजी के किनारे सिद्धाश्रम क्षेत्र में हुई।

इस ग्रंथ के ज्ञान, उपासना और कर्म इस प्रकार तीन कांड है। ज्ञान कांड के दो, उपासना कांड के चार और कर्मकांड के दो मिलाकर इस के आठ अष्टक अर्थात् चौसठ अध्याय हैं। यह प्रारूप ऋग्वेद से मिलता है। पहले अध्याय में, ऋग्वेद की ऋचाओं के एक या अधिक चरण को प्रत्येक श्लोक में गूँथकर ‘वेदपादस्तुति’ को सिद्ध किया है। आगे भी प्रति अध्याय के प्रथम श्लोक की रचना, ऋक् संहिता के अध्याय के प्रथम श्लोक के चरण से ही की गई है। उदाहरणार्थ दत्तपुराण के पहले पाँच अध्याय के प्रथम श्लोकों का आरंभ, ऋग्वेद के प्रथम पाँच अध्याय के प्रथम मंत्र के चरण ‘अग्निमीळे’, ‘अयं देवाय’, ‘एता या’, ‘अयं वा’, ‘प्रमन्महे’ से होता है। इस से श्री स्वामी महाराजजी की वेदों के प्रति नितांत आस्था का तो परिचय होता ही है, उसी के साथ उन का वेदों के प्रगाढ व्यासंग भी प्रकट होता है। स्वयं श्री स्वामी महाराजजी ने ग्रंथ टीका के आरंभ मे पुराण के शास्त्रोक्त लक्षण इस प्रकार कहे हैं – ‘सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वंतराणि च। वंश्यानुचरितं चैव पुराणं पंचलक्षणम्।’ अर्थात् पुराण के पांच लक्षण बताए हैं।

(१) सर्ग – पंचमहाभूत, इंद्रियगण, बुद्धि आदि तत्त्वों की उत्पत्ति का वर्णन,
(२) प्रतिसर्ग – ब्रह्मादिस्थावरांत संपूर्ण चराचर जगत् के निर्माण का वर्णन,
(३) वंश – सूर्यचंद्रादि वंशों का वर्णन्,
(४) मन्वंतर – मनु, मनुपुत्र, देव, सप्तर्षि, इंद्र और भगवान् के अवतारों का वर्णन्,
(५) वंश्यानुचरित – प्रति वंश के प्रसिद्ध पुरुषों का वर्णन. श्रीदत्तपुराण में यह सभी

शास्त्रीय लक्षण पाए जाते हैं अतः इस को पुराण कहना उचित ही है। ‘और भी अनेक आध्यात्मिक विषयों का सप्रमाण प्रतिपादन इस ग्रंथ में होने से इस का महत्त्व अधिकारी पुरुषही जान पाएँगे’ यह इस ग्रंथ के मूल प्रकाशक श्रीगुरुचरण योगिराज श्री गुलवणी महाराज का निवेदन है।

Similar Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *