राम सीता मिलन चौपाई
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पुष्पवाटिका-निरीक्षण, सीताजी का प्रथम दर्शन, श्री सीता-रामजी का परस्पर दर्शन
गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान॥226॥
समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई॥1॥
लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना॥2॥
चातक कोकिल कीर चकोरा। कूजत बिहग नटत कल मोरा॥3॥
बिमल सलिलु सरसिज बहुरंगा। जलखग कूजत गुंजत भृंगा॥4॥
परम रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख देत॥227॥
तेहि अवसर सीता तहँ आई। गिरिजा पूजन जननि पठाई॥1॥
सर समीप गिरिजा गृह सोहा। बरनि न जाइ देखि मनु मोहा॥2॥
पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा। निज अनुरूप सुभग बरु मागा॥3॥
तेहिं दोउ बंधु बिलोके जाई। प्रेम बिबस सीता पहिं आई॥4॥
कहु कारनु निज हरष कर पूछहिं सब मृदु बैन॥228॥
स्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी॥1॥
एक कहइ नृपसुत तेइ आली। सुने जे मुनि सँग आए काली॥2॥
बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू। अवसि देखिअहिं देखन जोगू॥3॥
चली अग्र करि प्रिय सखि सोई। प्रीति पुरातन लखइ न कोई॥4॥
चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत॥229॥
मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही। मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही॥1॥
भए बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल॥2॥
जनु बिरंचि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई॥3॥
सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी॥4॥
बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि॥230॥
पूजन गौरि सखीं लै आईं। करत प्रकासु फिरइ फुलवाईं॥1॥
सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता॥2॥
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी॥3॥
मंगन लहहिं न जिन्ह कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग माहीं॥4॥
मुख सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव पान॥231॥
जहँ बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी॥1॥
देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने॥2॥
अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥3॥
जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी। कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी॥4॥
तकिसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाई॥232॥
मोरपंख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के॥1॥
बिकट भृकुटि कच घूघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे॥2॥
मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं। जो बिलोकि बहु काम लजाहीं॥3॥
सुमन समेत बाम कर दोना। सावँर कुअँर सखी सुठि लोना॥4॥
देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान॥233॥
बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू। भूपकिसोर देखि किन लेहू॥1॥
नख सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा॥2॥
पुनि आउब एहि बेरिआँ काली। अस कहि मन बिहसी एक आली॥3॥
धरि बड़ि धीर रामु उर आने। फिरी अपनपउ पितुबस जाने॥4॥
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राम सीता विवाह चौपाई
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श्री सीता-राम विवाह
नवसप्त साजें सुंदरी सब मत्त कुंजर गामिनीं॥
कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं।
मंजीर नूपुर कलित कंकन ताल गति बर बाजहीं॥
छबि ललना गन मध्य जनु सुषमा तिय कमनीय॥322॥
आवत दीखि बरातिन्ह सीता। रूप रासि सब भाँति पुनीता॥1॥
हरषे दसरथ सुतन्ह समेता। कहि न जाइ उर आनँदु जेता॥2॥
गान निसान कोलाहलु भारी। प्रेम प्रमोद मगन नर नारी॥3॥
तेहि अवसर कर बिधि ब्यवहारू। दुहुँ कुलगुर सब कीन्ह अचारू॥4॥
सुर प्रगटि पूजा लेहिं देहिं असीस अति सुखु पावहीं॥
मधुपर्क मंगल द्रब्य जो जेहि समय मुनि मन महुँ चहें।
भरे कनक कोपर कलस सो तब लिएहिं परिचारक रहैं॥1॥
एहि भाँति देव पुजाइ सीतहि सुभग सिंघासनु दियो॥
सिय राम अवलोकनि परसपर प्रेमु काहुँ न लखि परै।
मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसें करै॥2॥
बिप्र बेष धरि बेद सब कहि बिबाह बिधि देहिं॥323॥
सुजसु सुकृत सुख सुंदरताई। सब समेटि बिधि रची बनाई॥1॥
जनक बाम दिसि सोह सुनयना। हिमगिरि संग बनी जनु मयना॥2॥
निज कर मुदित रायँ अरु रानी। धरे राम के आगें आनी॥3॥
बरु बिलोकि दंपति अनुरागे। पाय पुनीत पखारन लागे॥4॥
नभ नगर गान निसान जय धुनि उमगि जनु चहुँ दिसि चली॥
जे पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं।
जे सुकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीं॥1॥
मकरंदु जिन्ह को संभु सिर सुचिता अवधि सुर बरनई॥
करि मधुप मन मुनि जोगिजन जे सेइ अभिमत गति लहैं।
ते पद पखारत भाग्यभाजनु जनकु जय जय सब कहैं॥2॥
भयो पानिगहनु बिलोकि बिधि सुर मनुज मुनि आनँद भरैं॥
सुखमूल दूलहु देखि दंपति पुलक तन हुलस्यो हियो।
करि लोक बेद बिधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो॥3॥
तिमि जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नई॥
क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावँरीं।
करि होमु बिधिवत गाँठि जोरी होन लागीं भावँरीं॥4॥
भावार्थ:-जैसे हिमवान ने शिवजी को पार्वतीजी और सागर ने भगवान विष्णु को लक्ष्मीजी दी थीं, वैसे ही जनकजी ने श्री रामचन्द्रजी को सीताजी समर्पित कीं, जिससे विश्व में सुंदर नवीन कीर्ति छा गई। विदेह (जनकजी) कैसे विनती करें! उस साँवली मूर्ति ने तो उन्हें सचमुच विदेह (देह की सुध-बुध से रहित) ही कर दिया। विधिपूर्वक हवन करके गठजोड़ी की गई और भाँवरें होने लगीं॥4॥
सुनि हरषहिं बरषहिं बिबुध सुरतरु सुमन सुजान॥324॥
जाइ न बरनि मनोहर जोरी। जो उपमा कछु कहौं सो थोरी॥1॥
मनहुँ मदन रति धरि बहु रूपा। देखत राम बिआहु अनूपा॥2॥
भए मगन सब देखनिहारे। जनक समान अपान बिसारे॥3॥
राम सीय सिर सेंदुर देहीं। सोभा कहि न जाति बिधि केहीं॥4॥
बहुरि बसिष्ठ दीन्हि अनुसासन। बरु दुलहिनि बैठे एक आसन॥5॥
तनु पुलक पुनि पुनि देखि अपनें सुकृत सुरतरु पल नए॥
भरि भुवन रहा उछाहु राम बिबाहु भा सबहीं कहा।
केहि भाँति बरनि सिरात रसना एक यहु मंगलु महा॥1॥
मांडवी श्रुतकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि कै॥
कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामई।
सब रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहि दई॥2॥
सो तनय दीन्ही ब्याहि लखनहि सकल बिधि सनमानि कै॥
जेहि नामु श्रुतकीरति सुलोचनि सुमुखि सब गुन आगरी।
सो दई रिपुसूदनहि भूपति रूप सील उजागरी॥3॥
सब मुदित सुंदरता सराहहिं सुमन सुर गन बरषहीं॥
सुंदरीं सुंदर बरन्ह सह सब एक मंडप राजहीं।
जनु जीव उर चारिउ अवस्था बिभुन सहित बिराजहीं॥4॥
जनु पाए महिपाल मनि क्रियन्ह सहित फल चारि॥325॥
कहि न जा कछु दाइज भूरी। रहा कनक मनि मंडपु पूरी॥1॥
गज रथ तुरगदास अरु दासी। धेनु अलंकृत कामदुहा सी॥2॥
लोकपाल अवलोकि सिहाने। लीन्ह अवधपति सबु सुखु माने॥3॥
तब कर जोरि जनकु मृदु बानी। बोले सब बरात सनमानी॥4॥
प्रमुदित महामुनि बृंद बंदे पूजि प्रेम लड़ाइ कै॥
सिरु नाइ देव मनाइ सब सन कहत कर संपुट किएँ।
सुर साधु चाहत भाउ सिंधु कि तोष जल अंजलि दिएँ॥1॥
बोले मनोहर बयन सानि सनेह सील सुभाय सों॥
संबंध राजन रावरें हम बड़े अब सब बिधि भए।
एहि राज साज समेत सेवक जानिबे बिनु गथ लए॥2॥
अपराधु छमिबो बोलि पठए बहुत हौं ढीट्यो कई॥
पुनि भानुकुलभूषन सकल सनमान निधि समधी किए।
कहि जाति नहिं बिनती परस्पर प्रेम परिपूरन हिए॥3॥
दुंदुभी जय धुनि बेद धुनि नभ नगर कौतूहल भले॥
तब सखीं मंगल गान करत मुनीस आयसु पाइ कै।
दूलह दुलहिनिन्ह सहित सुंदरि चलीं कोहबर ल्याइ कै॥4॥
हरत मनोहर मीन छबि प्रेम पिआसे नैन॥326॥
भावार्थ:-सीताजी बार-बार रामजी को देखती हैं और सकुचा जाती हैं, पर उनका मन नहीं सकुचाता। प्रेम के प्यासे उनके नेत्र सुंदर मछलियों की छबि को हर रहे हैं॥326॥
मासपारायण, ग्यारहवाँ विश्राम
जावक जुत पद कमल सुहाए। मुनि मन मधुप रहत जिन्ह छाए॥1॥
कल किंकिनि कटि सूत्र मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर॥2॥
सोहत ब्याह साज सब साजे। उर आयत उरभूषन राजे॥3॥
नयन कमल कल कुंडल काना। बदनु सकल सौंदर्ज निदाना॥4॥
सोहत मौरु मनोहर माथे। मंगलमय मुकुता मनि गाथे॥5॥
पुर नारि सुर सुंदरीं बरहि बिलोकि सब तिन तोरहीं॥
मनि बसन भूषन वारि आरति करहिं मंगल गावहीं।
सुर सुमन बरिसहिं सूत मागध बंदि सुजसु सुनावहीं॥1॥
अति प्रीति लौकिक रीति लागीं करन मंगल गाइ कै॥
लहकौरि गौरि सिखाव रामहि सीय सन सारद कहैं।
रनिवासु हास बिलास रस बस जन्म को फलु सब लहैं॥2॥
चालति न भुजबल्ली बिलोकनि बिरह भय बस जानकी॥
कौतुक बिनोद प्रमोदु प्रेमु न जाइ कहि जानहिं अलीं।
बर कुअँरि सुंदर सकल सखीं लवाइ जनवासेहि चलीं॥3॥
चिरु जिअहुँ जोरीं चारु चार्यो मुदित मन सबहीं कहा॥
जोगींद्र सिद्ध मुनीस देव बिलोकि प्रभु दुंदुभि हनी।
चले हरषि बरषि प्रसून निज निज लोक जय जय जय भनी॥4॥
सोभा मंगल मोद भरि उमगेउ जनु जनवास॥327॥
परत पाँवड़े बसन अनूपा। सुतन्ह समेत गवन कियो भूपा॥1॥
धोए जनक अवधपति चरना। सीलु सनेहु जाइ नहिं बरना॥2॥
तीनिउ भाइ राम सम जानी। धोए चरन जनक निज पानी॥3॥
सादर लगे परन पनवारे। कनक कील मनि पान सँवारे॥4॥
छन महुँ सब कें परुसि गे चतुर सुआर बिनीत॥328॥
भाँति अनेक परे पकवाने। सुधा सरिस नहिं जाहिं बखाने॥1॥
चारि भाँति भोजन बिधि गाई। एक एक बिधि बरनि न जाई॥2॥
जेवँत देहिं मधुर धुनि गारी। लै लै नाम पुरुष अरु नारी॥3॥
एहि बिधि सबहीं भोजनु कीन्हा। आदर सहित आचमनु दीन्हा॥4॥
जनवासेहि गवने मुदित सकल भूप सिरताज॥329॥
बड़े भोर भूपतिमनि जागे। जाचक गुन गन गावन लागे॥1॥
प्रातक्रिया करि गे गुरु पाहीं। महाप्रमोदु प्रेमु मन माहीं॥2॥
तुम्हरी कृपाँ सुनहु मुनिराजा। भयउँ आजु मैं पूरन काजा॥3॥
सुनि गुर करि महिपाल बड़ाई। पुनि पठए मुनिबृंद बोलाई॥4॥
आए मुनिबर निकर तब कौसिकादि तपसालि॥330॥
चारि लच्छ बर धेनु मगाईं। काम सुरभि सम सील सुहाईं॥1॥
करत बिनय बहु बिधि नरनाहू। लहेउँ आजु जग जीवन लाहू॥2॥
कनक बसन मनि हय गय स्यंदन। दिए बूझि रुचि रबिकुलनंदन॥3॥
एहि बिधि राम बिआह उछाहू। सकइ न बरनि सहस मुख जाहू॥4॥
यह सबु सुखु मुनिराज तव कृपा कटाच्छ पसाउ॥331॥
दिन उठि बिदा अवधपति मागा। राखहिं जनकु सहित अनुरागा॥1॥
नित नव नगर अनंद उछाहू। दसरथ गवनु सोहाइ न काहू॥2॥
कौसिक सतानंद तब जाई। कहा बिदेह नृपहि समुझाई॥3॥
भलेहिं नाथ कहि सचिव बोलाए। कहि जय जीव सीस तिन्ह नाए॥4॥
भए प्रेमबस सचिव सुनि बिप्र सभासद राउ॥332॥
सत्य गवनु सुनि सब बिलखाने। मनहुँ साँझ सरसिज सकुचाने॥1॥
बिबिध भाँति मेवा पकवाना। भोजन साजु न जाइ बखाना॥2॥
तुरग लाख रथ सहस पचीसा। सकल सँवारे नख अरु सीसा॥3॥
कनक बसन मनि भरि भरि जाना। महिषीं धेनु बस्तु बिधि नाना॥4॥
जो अवलोकत लोकपति लोक संपदा थोरि॥333॥
चलिहि बरात सुनत सब रानीं। बिकल मीनगन जनु लघु पानीं॥1॥
होएहु संतत पियहि पिआरी। चिरु अहिबात असीस हमारी॥2॥
अति सनेह बस सखीं सयानी। नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी॥3॥
बहुरि बहुरि भेटहिं महतारीं। कहहिं बिरंचि रचीं कत नारीं॥4॥
चले जनक मंदिर मुदित बिदा करावन हेतु॥334॥
भावार्थ:-उसी समय सूर्यवंश के पताका स्वरूप श्री रामचन्द्रजी भाइयों सहित प्रसन्न होकर विदा कराने के लिए जनकजी के महल को चले॥334॥
चौपाई :
कोउ कह चलन चहत हहिं आजू। कीन्ह बिदेह बिदा कर साजू॥1॥
को जानै केहिं सुकृत सयानी। नयन अतिथि कीन्हे बिधि आनी॥2॥
पाव नार की हरिपदु जैसें। इन्ह कर दरसनु हम कहँ तैसें॥3॥
एहि बिधि सबहि नयन फलु देता। गए कुअँर सब राज निकेता॥4॥
करहिं निछावरि आरती महा मुदित मन सासु॥335॥
रही न लाज प्रीति उर छाई। सहज सनेहु बरनि किमि जाई॥1॥
बोले रामु सुअवसरु जानी। सील सनेह सकुचमय बानी॥2॥
मातु मुदित मन आयसु देहू। बालक जानि करब नित नेहू॥3॥
हृदयँ लगाई कुअँरि सब लीन्ही। पतिन्ह सौंपि बिनती अति कीन्ही॥4॥
बलि जाउँ तात सुजान तुम्ह कहुँ बिदित गति सब की अहै॥
परिवार पुरजन मोहि राजहि प्रानप्रिय सिय जानिबी।
तुलसीस सीलु सनेहु लखि निज किंकरी करि मानिबी॥
जन गुन गाहक राम दोष दलन करुनायतन॥336॥
सुनि सनेहसानी बर बानी। बहुबिधि राम सासु सनमानी॥1॥
पाइ असीस बहुरि सिरु नाई। भाइन्ह सहित चले रघुराई॥2॥
पुनि धीरजु धरि कुअँरि हँकारीं। बार बार भेटहि महतारीं॥3॥
पुनि पुनि मिलत सखिन्ह बिलगाई। बाल बच्छ जिमि धेनु लवाई॥4॥
मानहुँ कीन्ह बिदेहपुर करुनाँ बिरहँ निवासु॥337॥
ब्याकुल कहहिं कहाँ बैदेही। सुनि धीरजु परिहरइ न केही॥1॥
बंधु समेत जनकु तब आए। प्रेम उमगि लोचन जल छाए॥2॥
लीन्हि रायँ उर लाइ जानकी। मिटी महामरजाद ग्यान की॥3॥
बारहिं बार सुता उर लाईं। सजि सुंदर पालकीं मगाईं॥4॥
कुअँरि चढ़ाईं पालकिन्ह सुमिरे सिद्धि गनेस॥338॥
दासीं दास दिए बहुतेरे। सुचि सेवक जे प्रिय सिय केरे॥1॥
भूसुर सचिव समेत समाजा। संग चले पहुँचावन राजा॥2॥
दसरथ बिप्र बोलि सब लीन्हे। दान मान परिपूरन कीन्हे॥3॥
सुमिरि गजाननु कीन्ह पयाना। मंगल मूल सगुन भए नाना॥4॥
चले अवधपति अवधपुर मुदित बजाइ निसान॥339॥
भूषन बसन बाजि गज दीन्हे। प्रेम पोषि ठाढ़े सब कीन्हे॥1॥
बहुरि बहुरि कोसलपति कहहीं। जनकु प्रेमबस फिरै न चहहीं॥2॥
राउ बहोरि उतरि भए ठाढ़े। प्रेम प्रबाह बिलोचन बाढ़े॥3॥
करौं कवन बिधि बिनय बनाई। महाराज मोहि दीन्हि बड़ाई॥4॥
मिलनि परसपर बिनय अति प्रीति न हृदयँ समाति॥340॥
सादर पुनि भेंटे जामाता। रूप सील गुन निधि सब भ्राता॥1॥
राम करौं केहि भाँति प्रसंसा। मुनि महेस मन मानस हंसा॥2॥
ब्यापकु ब्रह्मु अलखु अबिनासी। चिदानंदु निरगुन गुनरासी॥3॥
महिमा निगमु नेति कहि कहई। जो तिहुँ काल एकरस रहई॥4॥
सबइ लाभु जग जीव कहँ भएँ ईसु अनुकूल॥341॥
होहिं सहस दस सारद सेषा। करहिं कलप कोटिक भरि लेखा॥1॥
मैं कछु कहउँ एक बल मोरें। तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें॥2॥
सुनि बर बचन प्रेम जनु पोषे। पूरनकाम रामु परितोषे॥3॥
बिनती बहुरि भरत सन कीन्ही। मिलि सप्रेमु पुनि आसिष दीन्ही॥4॥
भए परसपर प्रेमबस फिरि फिरि नावहिं सीस॥342॥
जनक गहे कौसिक पद जाई। चरन रेनु सिर नयनन्ह लाई॥1॥
जो सुखु सुजसु लोकपति चहहीं। करत मनोरथ सकुचत अहहीं॥2॥
कीन्हि बिनय पुनि पुनि सिरु नाई। फिरे महीसु आसिषा पाई॥3॥
राम सीता मिलन चौपाई
राम सीता विवाह गीत
रामायण सीता की विदाई
सिय रघुवीर विवाह
राम वन गमन चौपाई
Jo ikcha karhin man ma hi
बालकाण्ड वेबदुनिया
निज गिरा पावन
सीता स्वयंवर धनुष यज्ञ
रामायण में सीता स्वयंवर
रामचरितमानस चौपाई
रामायण की चौपाइयां
रामचरितमानस की चौपाई
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आटे के दीये क्यों जलाते हैं, जानिए 10 काम की बातें
हमने अक्सर मंदिरों में आटे के दीये जलते हुए देखे हैं, लेकिन हम नहीं जानते कि ऐसा क्यों किया जाता है? आइए जानते हैं शास्त्रसम्मत कुछ बातें…
1. वास्तव में आटे के दीपक का प्रयोग किसी बहुत बड़ी कामना की पूर्ति के लिए किया जाता है।
2. अक्सर मन्नत के दिए आटे के बने होते हैं।
3. अन्य दीपक की तुलना में आटे के दीप को शुभ और पवित्र माना गया है। मां अन्नपूर्णा का आशीष इस दीप को स्वत: ही मिल जाता है।
4. मां दुर्गा, भगवान हनुमान, श्री गणेश, भोलेनाथ शंकर, भगवान विष्णु, भगवान विष्णु के अवतार श्रीराम और श्री कृष्ण सभी के मंदिरों में आटे का दीप कामना पूर्ति के लिए जलाया जाता है।
5. मुख्य रूप से तांत्रिक क्रियाओं में आटे का दीप जलाते हैं।
6. कर्ज से मुक्ति, शीघ्र विवाह, नौकरी, बीमारी, संतान प्राप्ति, खुद का घर, गृह कलह, पति-पत्नी में विवाद, जमीन जायदाद, कोर्ट कचहरी में विजय, झूठे मुकदमे तथा घोर आर्थिक संकट के निवारण हेतु आटे के दीप संकल्प के अनुसार जलाए जाते हैं।
7. ये दीप घटती और बढ़ती संख्या में लगाए जाते हैं। एक दीप से शुरुआत कर उसे 11 तक ले जाया जाता है। जैसे संकल्प के पहले दिन 1 फिर 2, 3, ,4 , 5 और 11 तक दीप जलाने के बाद 10, 9, 8, 7 ऐसे फिर घटते क्रम में दीप लगाए जाते हैं।
8. आटे में हल्दी मिला कर गुंथा जाता है और हाथों से उसे दीप का आकार दिया जाता है। फिर उसमें घी या तेल डाल कर बत्ती सुलगाई जाती है।
9. मन्नत पूरी होने के बाद एक साथ आटे के सारे संकल्पित दीये मंदिर में जाकर लगाए जाते हैं।
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श्री रामचरित् सुनने-गाने की महिमा
जात सराहत मनहिं मन मुदित गाधिकुलचंदु॥360॥
चौपाई :
सुनि मुनि सुजसु मनहिं मन राऊ। बरनत आपन पुन्य प्रभाऊ॥1॥
जहँ तहँ राम ब्याहु सबु गावा। सुजसु पुनीत लोक तिहुँ छावा॥2॥
प्रभु बिबाहँ जस भयउ उछाहू। सकहिं न बरनि गिरा अहिनाहू॥3॥
तेहि ते मैं कछु कहा बखानी। करन पुनीत हेतु निज बानी॥4॥
छन्द :
रघुबीर चरित अपार बारिधि पारु कबि कौनें लह्यो॥
उपबीत ब्याह उछाह मंगल सुनि जे सादर गावहीं।
बैदेहि राम प्रसाद ते जन सर्बदा सुखु पावहीं॥
सोरठा :
तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु॥361॥
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने प्रथमः सोपानः समाप्तः।
कलियुग के सम्पूर्ण पापों को विध्वंस करने वाले श्री रामचरित मानस का यह पहला सोपान समाप्त हुआ॥
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शरद पूर्णिमा पर धन के राजा कुबेर होते हैं इन मंत्रों से प्रसन्न
कुबेर धन के राजा हैं। पृथ्वीलोक की समस्त धन संपदा का एकमात्र उन्हें ही स्वामी बनाया गया है। कुबेर भगवान शिव के परमप्रिय सेवक भी हैं। धन के अधिपति होने के कारण इन्हें शरद पूर्णिमा की रात मंत्र साधना द्वारा प्रसन्न करने का विधान बताया गया है। प्रस्तुत है मंत्र …

धन धान्य समृद्धिं मे देहि दापय दापय स्वाहा।।
कुबेर मंत्र
विनियोग- अस्य श्री कुबेर मंत्रस्य विश्वामित्र ऋषि:वृहती छंद: शिवमित्र धनेश्वरो देवता समाभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोग:
शिव संख युक्तादिवि भूषित वरगदे दध गतं भजतांदलम।।
* कुबेर का अष्टाक्षर मंत्र- ॐ वैश्रवणाय स्वाहा:
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शरद पूर्णिमा की रात मां लक्ष्मी को कैसे मनाएं
शरद पूर्णिमा की रात मां लक्ष्मी को कैसे मनाएं, याद कर लें 1 शुभ मंत्र
शरद पूर्णिमा की रात में की गई पूजन और आराधना से साल भर के लिए लक्ष्मी और कुबेर की कृपा प्राप्ति होती है। इसके अलावा मनोबल में वृद्धि, स्मरण शक्ति व खूबसूरती में वृद्धि होती है।
मां लक्ष्मी इस दिन विशेष प्रसन्न होती हैं क्योंकि मान्यतानुसार इस दिन समुद्र मंथन से वे अवतरित हुई थीं…इस दिन उनसे मनचाहा वरदान पाना आसान होता है। अत: शरद पूनम पर मां लक्ष्मी की आराधना अवश्य करें।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै नमः
चांदी के बर्तन में दूध और मिश्री का भोग लगाकर इस मंत्र का रात भर जप करें।
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शरद पूर्णिमा का जाना-माना उपाय: बस 1 दीपक जलाकर बन सकते हैं धनवान
1 अखंड दीपक करोड़पति बनाएगा शरद पूनम पर
शरद पूर्णिमा पर एक अखंड दीपक जलाने से आप बन सकते हैं धनवान
ईशान्य कोण में गुलाबी कमल पर बैठी हुई धन बरसाती हुई लक्ष्मी की पूजा करें।
पूजा के लिए 2 दीपक जलाएं।
शरद पूर्णिमा पर गाय के घी का 1 दीपक जलाकर दाहिने हाथ की ओर ओर रखें।
एक मूंगफली के तेल का 1 दीपक जलाकर बाएं हाथ की ओर रखें।
लेकिन ध्यान रखें दीपक की लौ कपास की न हों, लाल धागे की बाती तैयार कर दिया जलाएं।
लक्ष्मी पूजन के बाद घी का दीपक हाथ में लेकर चांद की ओर देखते हुए मां लक्ष्मी से प्रार्थना करें।
एक दीपक अखंड जलता रहे इस बात का ध्यान रखें। आप इच्छानुसार घी या तेल दोनों में से कोई भी दीपक अखंड जला सकते हैं। दीपक सुबह तक जलता रहना चाहिए।
आपको 4 लौंग लेनी है। जी हां वही लौंग जो घरों में मसाले और मुखवास के रूप में इस्तेमाल की जाती है। इसके साथ ही एक लाल कपडा लेना है।
इसके बाद महालक्ष्मी और कुबेर जी को ध्यान में रख कर घर के पूजा घर में बैठ कर देसी घी की ज्योत जलानी है और फिर 2 लौंग के जोड़े को इस में डाल देना है।
बची हुई दो लौंग को लाल कपड़े में बांध कर सच्ची श्रद्धा से उसे महालक्ष्मी का रूप मान कर अपनी तिजोरी में रख देना है। बस आपको केवल यही करना है। कोई मंत्र नहीं, कोई तंत्र नहीं।
शरद पूर्णिमा (Sharad Purnima) पर ऐसा करने से मात्र कुछ ही दिनों में आपकी सारी मनोकामनाएं पूरी हो जाएगी, सबसे महत्वपूर्ण तो यह कि कर्ज से मुक्ति मिल जाएगी। आपके पास इतना पैसा आएगा कि संभालना मुश्किल हो जाएगा।
आपको दो बातों का ध्यान रखना है. एक तो यह कि उपाय करते समय आपको इसके बारे में किसी को नहीं बताना है और दूसरा यह कि मन में उपाय के प्रति सच्ची श्रद्धा रखनी है।
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Sharad Purnima : चंद्र कौन हैं? कैसे हुआ उनका जन्म, जानिए अपने चंदा मामा को
चंद्र, चंद्रमा, मून, चांद या कहें कि बच्चों के चंदा मामा…. आखिर ये हैं कौन,क्या है इनकी उत्पत्ति का राज, यहां जानिए सारी बातें एक साथ…
ज्योतिष विज्ञान में चंद्र का स्थान दूसरा है। पंचांग भी चंद्र पर आधारित होता है। चंद्र के कारण ही धरती पर शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष होते हैं। इसी के कारण ही समुद्र में ज्वारभाटा उत्पन्न होता है। वैज्ञानिक कहते हैं कि हमारे शरीर में 65 प्रतिशत जल की स्थिति है। तो सोचें, क्या हमारे शरीर में ज्वारभाटा उत्पन्न नहीं होता है? हमारा मन कृष्ण पक्ष के साथ घटता है और शुक्ल पक्ष के साथ बढ़ता है। स्त्रियों पर चंद्र का प्रभाव ज्यादा माना गया है।वैज्ञानिक दृष्टिकोण : असल में चंद्र कोई ग्रह नहीं बल्कि धरती का उपग्रह माना गया है। पृथ्वी के मुकाबले यह एक चौथाई अंश के बराबर है। पृथ्वी से इसकी दूरी 406860 किलोमीटर मानी गई है। चंद्र पृथ्वी की परिक्रमा 27 दिन में पूर्ण कर लेता है। इतने ही समय में यह अपनी धुरी पर एक चक्कर लगा लेता है। 15 दिन तक इसकी कलाएँ क्षीण होती हैं तो 15 दिन यह बढ़ता रहता है। चंद्रमा सूर्य से प्रकाश लेकर धरती को प्रकाशित करता है।पुराण अनुसार : देव और दानवों द्वारा किए गए सागर मंथन से जो 14 रत्न निकले थे उनमें से एक चंद्रमा भी थे जिन्हें भगवान शंकर ने अपने सिर पर धारण कर लिया था।
चंद्र देवता हिंदू धर्म के अनेक देवतओं मे से एक हैं। उन्हें जल तत्व का देव कहा जाता है। चंद्रमा की महादशा दस वर्ष की होती है। चंद्रमा के अधिदेवता अप् और प्रत्यधिदेवता उमा देवी हैं। श्रीमद् भागवत के अनुसार चंद्रदेव महर्षि अत्रि और अनुसूया के पुत्र हैं। इनको सर्वमय कहा गया है। ये सोलह कलाओं से युक्त हैं। इन्हें अन्नमय, मनोमय, अमृतमय पुरुषस्वरूप भगवान कहा जाता है।प्रजापितामह ब्रह्मा ने चंद्र देवता को बीज, औषधि, जल तथा ब्राह्मणों का राजा बनाया। चंद्रमा का विवाह राजा दक्ष की सत्ताईस कन्याओं से हुआ। ये कन्याएँ सत्ताईस नक्षत्रों के रूप में भी जानी जाती हैं, जैसे अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी आदि। चंद्रदेव की पत्नी रोहिणी से उनको एक पुत्र मिला जिनका नाम बुध है। चंद्र ग्रह ही सभी देवता, पितर, यक्ष, मनुष्य, भूत, पशु-पक्षी और वृक्ष आदि के प्राणों का आप्यायन करते हैं।
सुंदर सलोने चंद्रमा को देवताओं के समान ही पूजनीय माना गया है। चंद्रमा के जन्म की कहानी पुराणों में अलग-अलग मिलती है। ज्योतिष और वेदों में चंद्र को मन का कारक कहा गया है। वैदिक साहित्य में सोम का स्थान भी प्रमुख देवताओं में मिलता है। अग्नि, इंद्र, सूर्य आदि देवों के समान ही सोम की स्तुति के मंत्रों की भी रचना ऋषियों द्वारा की गई है।
पुराणों के अनुसार चंद्र की उत्पत्ति
मत्स्य एवं अग्नि पुराण के अनुसार जब ब्रह्मा जी ने सृष्टि रचने का विचार किया तो सबसे पहले अपने मानसिक संकल्प से मानस पुत्रों की रचना की। उनमें से एक मानस पुत्र ऋषि अत्रि का विवाह ऋषि कर्दम की कन्या अनुसुइया से हुआ जिससे दुर्वासा, दत्तात्रेय व सोम तीन पुत्र हुए। सोम चंद्र का ही एक नाम है।
पद्म पुराण में चंद्र के जन्म का अन्य वृतांत दिया गया है। ब्रह्मा ने अपने मानस पुत्र अत्रि को सृष्टि का विस्तार करने की आज्ञा दी। महर्षि अत्रि ने
अनुत्तर नाम का तप आरंभ किया। तप काल में एक दिन महर्षि के नेत्रों से जल की कुछ बूंदें टपक पड़ी जो बहुत प्रकाशमय थीं। दिशाओं ने स्त्री रूप में
आकर पुत्र प्राप्ति की कामना से उन बूंदों को ग्रहण कर लिया जो उनके उदर में गर्भ रूप में स्थित हो गया। परंतु उस प्रकाशमान गर्भ को दिशाएं धारण न रख सकीं और त्याग दिया। उस त्यागे हुए गर्भ को ब्रह्मा ने पुरुष रूप दिया जो चंद्रमा के नाम से प्रख्यात हुए। देवताओं, ऋषियों व गंधर्वों
आदि ने उनकी स्तुति की। उनके ही तेज से पृथ्वी पर दिव्य औषधियां उत्पन्न हुई। ब्रह्मा जी ने चंद्र को नक्षत्र, वनस्पतियों, ब्राह्मण व तप का स्वामी
नियुक्त किया।
स्कंद पुराण के अनुसार जब देवों तथा दैत्यों ने क्षीर सागर का मंथन किया था तो उस में से चौदह रत्न निकले थे। चंद्रमा उन्हीं चौदह रत्नों में से एक है जिसे लोक कल्याण हेतु, उसी मंथन से प्राप्त कालकूट विष को पी जाने वाले भगवान शंकर ने अपने मस्तक पर धारण कर लिया। पर ग्रह के रूप में
चंद्र की उपस्थिति मंथन से पूर्व भी सिद्ध होती है।
स्कंद पुराण के ही माहेश्वर खंड में गर्गाचार्य ने समुद्र मंथन का मुहूर्त निकालते हुए देवों को कहा कि इस समय सभी ग्रह अनुकूल हैं। चंद्रमा से गुरु का
शुभ योग है। तुम्हारे कार्य की सिद्धि के लिए चंद्र बल उत्तम है। यह गोमंत मुहूर्त तुम्हें विजय देने वाला है। अतः यह संभव है कि चंद्रमा के विभिन्न अंशों का जन्म विभिन्न कालों में हुआ हो। चंद्र का विवाह दक्ष प्रजापति की नक्षत्र रूपी 27 कन्याओं से हुआ जिनसे अनेक प्रतिभाशाली पुत्र हुए। इन्हीं
27 नक्षत्रों के भोग से एक चंद्र मास पूर्ण होता है।
अशुभ : दुध देने वाला जानवर मर जाए। यदि घोड़ा पाल रखा हो तो उसकी मृत्यु भी तय है, किंतु आमतौर पर अब लोगों के यहाँ ये जानवर नहीं होते। माता का बीमार होना या घर के जल के स्रोतों का सूख जाना भी चंद्र के अशुभ होने की निशानी है। महसूस करने की क्षमता क्षीण हो जाती है। राहु, केतु या शनि के साथ होने से तथा उनकी दृष्टि चंद्र पर पड़ने से चंद्र अशुभ हो जाता है। मानसिक रोगों का कारण भी चंद्र को माना गया है।
शुभ : शुभ चंद्र व्यक्ति को धनवान और दयालु बनाता है। सुख और शांति देता है। भूमि और भवन के मालिक चंद्रमा से चतुर्थ में शुभ ग्रह होने पर घर संबंधी शुभ फल मिलते हैं।
उपाय : प्रतिदिन माता के पैर छूना। शिव की भक्ति। सोमवार का व्रत। पानी या दूध को साफ पात्र में सिरहाने रखकर सोएँ और सुबह कीकर के वृक्ष की जड़ में डाल दें। चावल, सफेद वस्त्र, शंख, वंशपात्र, सफेद चंदन, श्वेत पुष्प, चीनी, बेल, दही और मोती दान करना चाहिए।
मकान : चंद्र शुभ है तो मकान से 24 कदम दूर या ठीक सामने कुआँ, हैंडपंप, तालाब या बहता हुआ पानी अवश्य होगा। दूध वाले वृक्ष होंगे। घर में शांति होगी।
।।ॐ श्रां श्रीं श्रौं सः चंद्राय नमः।।
देवता : शिवगोत्र : अत्रिदिशा : वायवदिवस : सोमवारवस्त्र : धोतीपशु : घोड़ाअंग : दिल, बायाँ भागव्यापार : कुम्हार, झींवरवस्तु : चाँदी, मोती, दुधस्वभाव : शीतल और शांतवर्ण-जाति
: श्वेत, ब्राह्मणविशेषता : दयालु, हमदर्दभ्रमण : एक राशि में सवा दो दिन।नक्षत्र
: रोहिणी, हस्त, श्रवणगुण : माता, जायदाद,शांतिवृक्ष : पोस्त का हरा पौधा, जिसमें दूध हो।शक्ति : सुख शांति का मालिक, माता का प्यारा, पूर्वजों का सेवक।वाहन: हिरण, श्वेत रंग के दस घोड़ों से चलने वाला हीरे जड़ित तीन पहियों वाला रथ है।राशि : नक्षत्रों और कर्क राशि के स्वामी चंद्रमा के मित्र सूर्य,बुध। राहु और केतु शत्रु हैं। मंगल, गुरु, शुक्र और शनि सम हैं। राहु के साथ होने से चंद्रग्रहण।
अन्य नाम
चंद्र, चंद्रमा, मून, चांद, चंदा मामा, सोम, रजनीपति, रजनीश, शशि, कला, निधि, इंदू, शशांक, शितांशु, मृगांक, सुधाकर और मयंक।
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Sharad Purnima : शरद पूर्णिमा पर साबूदाने की खीर से लगाएं चंद्रमा को भोग
Sabudana Kheer
सामग्री :
1 लीटर फुल क्रीम दूध, आधा कप साबूदाना, 150 ग्राम शक्कर, पाव कटोरी काजू-पिस्ता, बादाम की कतरन, 3-4 केसर के लच्छे, 1 चम्मच पिसी इलायची, 2 छोटे चम्मच कन्डेंस्ड मिल्क।
विधि :
खीर बनाने से एक-दो घंटे पूर्व साबूदाने को धोकर भीगो दें। अब एक बर्तन में दूध को गरम कर अच्छा उबलने दें। तत्पश्चात एक अलग कटोरी में एक छोटा चम्मच गरम दूध लेकर केसर गला दें।
अब उबल रहे दूध में भीगा हुआ साबूदाना डाल दें और लगातार चलाते हुए धीमी आंच पर पकाएं। एक अलग कटोरी में कन्डेंस्ड मिल्क घोलकर दूध में मिला दें।
अब साबूदाने को तब तक पकाएं जब तक कि वह कांच जैसा चमकने न लगे। फिर शक्कर मिलाकर 5-7 उबाल आने तक पकाएं और आंच को बंद कर दें। ऊपर से कटे मेवे, केसर और इलायची पावडर डालकर अच्छी तरह मिलाएं। तैयार साबूदाने की लजीज फलाहारी खीर सर्व करें।
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कैसे करें शरद पूर्णिमा पूजा: 10 काम की बातें, जानिए मंत्र और शुभ मुहूर्त
आश्विन मास की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है। इस साल शरद पूर्णिमा 30 अक्टूबर शुक्रवार के दिन मनाई जाएगी। धार्मिक मान्यता के अनुसार, शरद पूर्णिमा सभी पूर्णिमा तिथि में से सबसे महत्वपूर्ण पूर्णिमा तिथि मानी जाती है।

इस दिन धन वैभव और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए मां लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है और व्रत रखा जाता है। इस पूर्णिमा को कोजागरी पूर्णिमा या कोजागरी लक्ष्मी पूजा भी कहते हैं। पौराणिक मान्यता के अनुसार, शरद पूर्णिमा के दिन माता लक्ष्मी जी का अवतरण हुआ था। आइए जानते हैं शरद पूर्णिमा व्रत का मुहूर्त विधि और महत्व।
- शरद पूर्णिमा के दिन सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठकर किसी पवित्र नदी में स्नान अवश्य करें।
- इसके बाद एक चौकी पर लाल कपड़ा बिछाएं। उस पर माता लक्ष्मी की मूर्ति या तस्वीर स्थापित करें। फिर मां लक्ष्मी को लाल पुष्प, नैवैद्य, इत्र, सुगंधित चीजें अर्पित करें।
- आराध्य देव को सुंदर वस्त्र और आभूषण पहनाएं। आवाहन, आसन, आचमन, वस्त्र, गंध, अक्षत,
पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, तांबूल, सुपारी और दक्षिणा आदि अर्पित कर पूजन करें।
- यह सभी चीजें अर्पित करने के बाद माता लक्ष्मी के मंत्र और लक्ष्मी चालीसा का पाठ करें। मां लक्ष्मी की धूप व दीप से आरती करें।
- फिर माता लक्ष्मी को खीर का भोग लगाएं। ब्राह्मण को इस दिन खीर का दान अवश्य करें।
- रात्रि के समय गाय के दूध से खीर बनाई जाती है और इसमें घी और चीनी मिलाई जाती है। आधी रात के समय भगवान भोग लगाएं।
- रात्रि में चंद्रमा के आकाश के मध्य में स्थित होने पर चंद्र देव का पूजन करें। फिर खीर का नेवैद्य अर्पण करें।
- रात को खीर से भरा बर्तन चांदनी में रखकर दूसरे दिन उसका भोजन करें। इसे प्रसाद के रूप में वितरित भी करें।
- पूर्णिमा का व्रत करके कथा सुनें। कथा से पहले एक लोटे में जल और गिलास में गेहूं, पत्ते के दोने में रोली व चावल रखकर कलश की वंदना करें। फिर दक्षिणा चढ़ाएं।
- इस दिन भगवान शिव-पार्वती और भगवान कार्तिकेय की भी पूजा की जाती है।
पूर्णिमा व्रत शुभ मुहूर्त:
शरद पूर्णिमा तिथि प्रारम्भ: 30 अक्टूबर 2020 को शाम 07 बजकर 45 मिनट
शरद पूर्णिमा के दिन चन्द्रोदय: 30 अक्टूबर 2020 को 7 बजकर 12 मिनट
शरद पूर्णिमा तिथि समाप्त: 31 अक्टूबर 2020 को रात्रि 8 बजकर 18 मिनट
मंत्र :
ॐ चं चंद्रमस्यै नम:
दधिशंखतुषाराभं क्षीरोदार्णव सम्भवम ।
नमामि शशिनं सोमं शंभोर्मुकुट भूषणं ।।
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