Sanskrit Subhashitani – संस्कृत सुभाषितानि श्लोक अर्थ सहित – पाठ का हिंदी अनुवाद

अजं रुक्मिणीप्राणसंजीवनं
तं परं धाम कैवल्यमेकं तुरीयम् ।
प्रसन्नं प्रपन्नार्तिहं देवदेवं
परब्रह्मलिंगं भजे पांडुरंगं ॥ ८ ॥

-श्री पांडुरंग अष्टकम
जो जन्म- मृत्यु के परे है ,जो रुक्मिणी का प्राणधारी है।
भक्तों के लिए परम विश्रामस्थान और शुद्ध कैवल्य वाले,
जागृति, स्वप्न और सुषुप्ति और बाल्य, तारुण्य व वार्धक्य
इन तीनों अवस्थाओं के परे, हमेशा प्रसन्न, भक्तों के
दुखों को हराने वाले और देवताओं के भी देवता होने वाले
ऐसे आनंदकांद परब्रह्मस्वरूप पांडुरंग को मैं भजता हूँ।


अहान्यस्तमयान्तानि उदयान्ता च शर्वरी ।
सुखस्यान्तः सदा दुःखं दःखस्यान्तः सदा सुखम् ।।

Day ends with the Sunset
and night with the Sun rise.
The end of pleasures is always sorrow, and the end of sorrow
is always pleasure.


न जानामि योगं जपं नैव पूजां, नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यं।
जरा जन्म दुखौघ तातप्यमानं, प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो॥८॥

भावार्थ : मैं न योग जानता हूँ, न ही जप और पूजा,
हे शम्भु! मैं तो सदा-सर्वदा आपको ही नमन करता हूँ।
हे मेरे प्रभु!, वृद्धावस्था, जन्म-मृत्यु आदि दुखों से घिरे
मुझ दुखी की रक्षा कीजिये.


सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात ब्रूयान्नब्रूयात् सत्यंप्रियम्।
प्रियं च नानृतम् ब्रुयादेषः धर्मः सनातनः।।

भावार्थ:
सच बोलो लेकिन वही सच बोलो जो सबको प्रिय हो, वो सच मत बोलो जो सबके लिए हानिकारक हो, उसी तरह झूठ मत बोलो जो सबको प्रिय हो, यही सनातन धर्म है।


पुस्तकस्था तु या विद्या ,परहस्तगतं च धनम् | कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम् ||
पुस्तक में रखी विद्या तथा दूसरे के हाथ में गया धन – ये दोनों ही ज़रूरत के समय हमारे किसी भी काम नहीं आया करते|


अजराऽमरवत्प्राज्ञो विद्यामर्थञ्च चिन्तयेत्।
गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत्।।
भावार्थ:

बुद्धिमान व्यक्ति को अपने को वृद्धावस्था और मृत्यु से रहित समझकर ज्ञान और धन अर्जित करना चाहिए और जैसे मृत्यु उसके सिर पर सवार हो, उसे धर्म का पालन करना चाहिए।


परोपकारशून्यस्य धिक् मनुष्यस्य जीवितम् ।
जीवन्तु पशवो येषां चर्माप्युपकरिष्यति ॥
-सुभाषित रत्नावली

परोपकार रहित मानव के जीवन को धिक्कार है ।
वे पशु धन्य है, मरने के बाद जिनका चमडा भी उपयोग में आता है ।


द्वयक्षरस तु भवेन् मृत्युस्
त्र्यक्षरं ब्रह्म शाश्वतम् ।
ममं इतिच भवेन मृत्युर
‘ न मम ‘ इतिचशाश्वतम् ।।
-#महाभारत . #शांतिपर्व

महाभारत के युद्ध के बाद शोकग्रस्त होकर वन में जाने का विचार करनेवाले युधिष्ठिर से सहदेव कहते है –
” #मृत्यु यह दो अक्षरी है और
शाश्वत #ब्रह्म तीन अक्षरी है ।
” मम ” अर्थात मेरा कहा तो मृत्यु ही है और
” न मम ” मेरा कुछ भी नही
ऐसा कहा तो वह शाश्वत ब्रह्म है /वही अमरत्व है ।


यस्मिन् जीवति जीवन्ति बहव: स तु जीवति।
काकोऽपि किं न कुरूते चञ्च्वा स्वोदरपूरणम्।।
#पंचतंत्र

जिसके जीने से कई लोग जीते हैं, वह जीया कहलाता है,
अन्यथा क्या कौआ भी चोंच से अपना पेट नहीं भरता ?


एकोऽपि कृष्णस्य कृतः प्रणामो दशाश्वमेधावभृथेन तुल्य: |
दशाश्वमेधी पुनरेति जन्म कृष्णप्रणामी न पुनर्भवाय ||
-महाभारत शान्तिपर्व ४७.९२

भगवान श्रीकृष्ण को एक बार भी प्रणाम किया जाय तो वह दस अश्वमेध यज्ञोके अंतमे किये गये स्नानके सामान फल देनेवाला होता है|इसके आलावा प्रणाम की और एक विशेषता है की दस अश्वमेध यज्ञ करने के बाद भी व्यक्ति संसार के जन्म मरण के चक्र से मुक्त नही हो पाता है पर श्रीकृष्ण को प्रणाम अर्थात शरण जाने वाला फिर संसार-बंधनमें नहीं आता


ये दारागारपुत्राप्तान् प्राणान् वित्तमिमं परम् |
हित्वा मान् शरणं याताः कथा तान्स्त्यक्तुमुत्सहे ||
-श्रीमद्भागवत ९.४.६४

जो भक्त स्त्री , पुत्र , गृह , गुरुजन , प्राण , धन , इहलोक , और परलोक इन सब का त्याग कर मेरी ही शरण में आ गये है , उन्हें छोडनेका संकल्प भी मै कैसे कर सकता हु ??
अर्थात जो सब कुछ त्याग कर किसी भी भौतिक या परलौकिक सुख की कामना त्याग, निष्काम भाव से ईश्वर की शरण लेता है उसका साथ ईश्वर कभी नहीं छोड़ते है…


यदाचरित कल्याणि ! शुभं वा यदि वाऽशुभम् ।तदेव लभते भद्रे ! कर्त्ता कर्मजमात्मनः ॥-वाल्मीकि रामायण
मनुष्य जैसा भी अच्छा या बुरा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है । कर्त्ता को अपने कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है ।


येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः । ते मृत्युलोके भुवि भारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति । । -चाणक्य नीतिशास्त्र
जिसके पास विद्या, तप, ज्ञान, शील, गुण और धर्म में से कुछ नहीं वह मनुष्य ऐसा जीवन व्यतीत करते हैं जैसे एक मृग!


सेवध्वं विबुधास्तमंधकरिपुं माक्लिश्यतान्यश्रुते
यस्मादत्र परत्र च त्रिजगति त्राता स एकःशिवः।
आयाते नियतेर्वशात् स्वविषये कालात् करालाद्भये
कुत्र व्याकरणं क्व तर्ककलहः काव्यश्रमःक्वापि वा ॥
Oh scholars! Serve the only Lord who is can get ridof all darkness. He is the only one who can help you in this world, in the afterlife and in all the three worlds. He is Lord Shiva. When death comesto take you away you will be really scared. How will your knowledge of grammar, logic or poetry help ?


कश्चित् कस्यचिन्मित्रं, न कश्चित् कस्यचित् रिपु:।
अर्थतस्तु निबध्यन्ते, मित्राणि रिपवस्तथा ॥
-चाणक्य नीति
न कोई किसी का मित्र है और न ही शत्रु,
कार्यवश ही लोग मित्र और शत्रु बनते हैं ।


येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।
ते मृत्युलोके भुवि भारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति । ।
-चाणक्य नीतिशास्त्र [10.7]

जिसके पास विद्या, तप, ज्ञान, शील, गुण और धर्म में से कुछ नहीं वह मनुष्य ऐसा जीवन व्यतीत करते हैं जैसे एक मृग!


यदाचरित कल्याणि ! शुभं वा यदि वाऽशुभम् ।
तदेव लभते भद्रे ! कर्त्ता कर्मजमात्मनः ॥
-वाल्मीकि रामायण

मनुष्य जैसा भी अच्छा या बुरा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है । कर्त्ता को अपने कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है ।


एकः शत्रु र्न द्वितीयोऽस्ति शत्रुः ।
अज्ञानतुल्यः पुरुषस्य राजन् ॥
-महाभारत

हे राजन् ! इन्सान का एक ही शत्रु है, अन्य कोई नहीं; वह है अज्ञान ।


प्रहस्य मणिमुद्धरेन्मकरवक्रदंष्ट्रान्तरात्
समुद्रमपि सन्तरेत्प्रचलदूर्मिमालाकुलम् ।
भुजङ्गमपि कोपितं शिरसि पुष्पवद्धारये
न्न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ॥
– #भर्तृहरि नीति शतक

अगर हम चाहें तो मगरमच्छ के दांतों में फसे मोती को भी निकाल सकते हैं,
साहस के बल पर हम बड़ी-बड़ी लहरों वाले समुद्र को भी पार कर सकते हैं, यहाँ तक कि हम गुस्सैल सर्प को भी फूलों की माला तरह अपने गले में पहन सकते हैं; लेकिन एक मुर्ख को सही बात समझाना असम्भव है।


न तथेच्छन्ति कल्याणान् परेषां वेदितुं गुणान् ।
यथैषां ज्ञातुमिच्छन्ति नैर्गुण्यं पापचेतसः ।।
-विदूरनीति

जिसका मन पापों में लगा रहता है,
वे लोग दूसरों के कल्याणमय गुणों को जानने की वैसी
इच्छा नहीं रखते, जैसी कि उनके अवगुणों को जानने की रखते हैं ।


दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्ययालङ्कृतोअपि सन्।
मणिना भूषितः सर्पः किमसौ न भयंकरः ।।
-#भर्तृहरि नीति शतक

विद्या से विभूषित होने पर भी दुर्जन त्याग करने योग्य है।
मणि से अलङ्कृत होने पर भी वह सर्प क्या भयंकर नहीं होता है
अर्थात् अवश्य होता है|


अहन्यहनि भूतानि ,
गच्छन्ति यमालयम् ।
शेषाः स्थावरम् इच्छन्ति ,
किम् आश्चर्यं मत: परम् ।।
-महाभारत

महाभारत में धर्मराज युद्धिष्ठिर यक्षप्रश्न का उत्तर देते हुए पूँछते हैं :
” दिन प्रतिदिन सभी जीवित प्राणी मृत्यु को प्राप्त कर यमराज के घर जाते हैं । आश्चर्य है कि फिर क्यों जो जीवित रहते हैं वे अमर रहने की इच्छा रखते हैं ? “


परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते ।
स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम् ॥ १.३२ ॥
-#भर्तृहरि नीति शतक

इस भ्रमणशील व् अस्थिर संसार में ऐसा कौन है
जिसका जन्म और मृत्यु न हुआ हो ?
लेकिन यथार्थ में जन्म लेना उसी मनुष्य का सफल है
जिसके जन्म से उसके वंश के गौरव की वृद्धि हो।


यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः ।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः ॥
-श्रीमद भगवदगीता ४:१९

जिसके सम्पूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म बिना कामना और संकल्पके होते हैं तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्निद्वारा भस्म हो गए हैं, उस महापुरुषको ज्ञानीजन भी पंडित कहते हैं ॥


अन्वर्थवेदी शूरश्च क्षमावान्न च कर्कशः |
कल्याणमेधास्तेजस्वी स भद्रः परिकीर्तिते ||#महासुभाषितसंग्रह

अर्थ – जो व्यक्ति बुद्धिमान्, शूर, क्षमावान् सहृदय (कर्कश नहीं ) जनकल्याण की भावना से युक्त तथा तेजस्वी होता है उसे ही समाज में भद्र पुरुष कहा जाता है |


संग्रहैकपरः प्रायः समुद्रोऽपि रसातले ।
दातारं जलदं पश्य गर्जंतं भुवनोपरि ॥ #चाणक्यनिती

‘संग्राहक’ समुद्र की तरह सदैव रसातल में ही रहता है। ‘दानी’ बादल को देखिए जो पृथ्वी के ऊपर सदैव गरजते रहते हैं।


षड् दोषा: पुरूषेण इह,हातव्या भूतिमिच्छता ।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध:,आलस्यं दीर्घसूत्रता ।। -विदुर नीति

ऐश्वर्य या उन्नति चाहने वाले पुरूषों को –
निद्रा, तन्द्रा , डर, क्रोध , आलस्य एवं दीर्घसूत्रता –
ये छ: दुर्गुण छोड़ देना चाहिए ।


परोपकरणं येषां जागर्ति हृदये सताम् ।
नश्यन्ति विपदस्तेषां सम्पदः स्युः पदे पदे ॥
-चाणक्य नीति १७/१५
जिसमे सभी जीवो के प्रति परोपकार की भावना है
वह सभी संकटों पर मात करता है
और उसे हर कदम पर सभी प्रकार की सम्पन्नता प्राप्त होती है.


आयुष क्षण एकोऽपि न लभ्य: स्वर्णकोटिभि: ।
स चेन्निरर्थकं नीतः का नु हानिस्ततोधिका? ॥
-चाणक्य नीति

जीवन का एक क्षण भी कोटि स्वर्णमुद्रा देने पर भी नहीं मिल सकता । वह यदि नष्ट हो जाय तो इससे अधिक हानि क्या हो सकती है ?


विद्यां च अविद्यां च य: तद्वेदोभयँ सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाअमृतश्नुते ।। -#ईशोपनिषद्

जो विद्या (ज्ञान) और अविद्या (कर्म) इन दोनों को ही एक साथ जानता है, वह अविद्या (कर्म) से मृत्यु को पार करके विद्या (ज्ञान) से अमरत्व प्राप्त कर लेता है ।


शान्तितुल्यं तपो नास्ति ,तोषान्न परमं सुखम् ।
नास्ति तृष्णापरो व्याधि: ,न च धर्मो दया पर: ।।
-विदुर नीति

शान्ति के समान कोई तप नहीं है । संतोष के समान कोई सुख नहीं है ।
तृष्णा के समान कोई व्याधि नहीं है । दया के समान कोई धर्म नहीं है ।


उदये सविता रक्तो रक्तशचास्तमये तथा।
सम्पत्तौ च विपत्तौ च महामेकरूपता ॥ – महाभारत

जिस प्रकार से सूर्य सुबह उगते तथा शाम को
अस्त होते समय दोनों ही समय में लाल रंग का होता है (अर्थात् दोनों ही संधिकालों में एक समान रहता है),
उसी प्रकार महान लोग अपने अच्छे और बुरे दोनों ही समय में एक जैसे एक समान (धीर बने) रहते हैं।


गुरवो बहवः सन्ति शिष्यवित्तापहारकाः |
दुर्लभः स गुरुर्लोके शिष्यचिन्तापहारकः ||

अर्थ – इस संसार मे अपने शिष्यों का धन लूटने वाले गुरु बहुत अधिक संख्या में होते हैं , परन्तु ऐसे गुरु दुर्लभ होते हैं जो अपने शिष्यों की शङ्काओं तथा चिन्ताओं को दूर करते है |


यादृशै: सन्निविशते यादृशांश्चोपसेवते ।
यादृगिच्छेच्च भवितुं तादृग्भवति पूरूष: ।।

मनुष्य जिस प्रकार के लोगों के साथ रहता है , जिस प्रकार के लोगों की सेवा करता है , जिनके जैसा बनने की इच्छा करता है वैसा वह होता है ।


अपि शास्त्रेषु कुशला लोकाचार विवर्जिता |
सर्वे ते हास्यतां यान्ति यथा ते मूर्ख पण्डिताः ||

विभिन्न शास्त्रों में कुशल व्यक्ति भी यदि सामाजिक व्यवहारसे रहित हों तो ऐसे व्यक्तियों की सभी लोग हंसी उडाते है कि मानो वे मूर्ख पण्डित हों


अपूजितोSतिथिर्यस्य गृहाद्याति विनिःश्वसन् |
गच्छन्ति पितरस्तस्य विमुखाः सह दैवतैः||

जिस गृहस्त के घर से कोई अतिथि उचित सम्मान न पा कर निःश्वास भरकर पलायन करता है तो उसके पितर तथा देवता भी उससे विमुख हो जाते हैं |


ऐश्वर्यमदमत्तानां क्षुधितानां च कामिनाम् ।
अहंकारविमूढानां विवेको नैव जायते ॥

जो ऐश्वर्य के मद से उन्मत्त हैं, जो भूख से पीड़ित हैं, जो कामी हैं तथा जो अहंकार से मूढ हो रहे हैं, ऐसे मनुष्यों को विवेक नही होता।


उपाध्यात् दश आचार्य: आचार्याणां शतं पिता ।
सहस्रं तु पितॄन् माता गौरवेण अतिरिच्यते ॥ #मनुस्मॄति

आचार्य उपाध्यायसे दस गुना श्रेष्ठ होते है ।
पिता सौ आचार्यों के समान होते है ।
माता पितासे हजार गुना श्रेष्ठ होती है ।


वाणी रसवती यस्य,यस्य श्रमवती क्रिया।
लक्ष्मी: दानवती यस्य,सफलं तस्य जीवितं।।

जिस मनुष्य की वाणी मीठी हो, जिसका काम परिश्रम से भरा हो, जिसका धन दान करने में प्रयुक्त हो, उसका जीवन सफ़ल है।


संसारकटुवृक्षस्य द्वे फले ह्यमृतोपमे | सुभाषितरसास्वादः संगतिः सुजने जने ||१||
सुभाषितेनगीतेन युवतीनांच लीलया | मनो न भिद्यते यस्य स योगी ह्यथवापशुः ||२||

संसार रूपी कड़वे वृक्ष केअमृत जैसे दो फल हैं (एक) सुभाषित रसों का स्वाद और (दो) अच्छे लोगों की संगति | १ |
सुभाषित गीतों से और युवतियों की लीला से जिसका मन नहीं डोलता है वह या तो योगी है या पशु है |२ |

There are two nectarlike fruits of (this) bitter world. First is the extract of Good sayings and another is company of good people. |1|
Whose mind is unperturbed by songs of good sayings and flirtation of young women, That is either a Yogi or an animal. |2|


सत्येनोत्पद्यते धर्मो दयादानेन वर्धते ।
क्षमायां स्थाप्यते धर्मो क्रोधलोभा द्विनश्यति ॥-महासुभाषितसंग्रह

धर्म सत्य से उत्पन्न होता है, दया और दान से बढता है,
क्षमा से स्थिर होता है, और क्रोध एवं लोभ से नष्ट होता है ।


तत्कर्म हरितोषं यत् सा विद्या तन्मतिर्यया ।। #श्रीमद्भागवत ४/२९/४९

कर्म तो वही है, जिससे भगवानको प्रसन्न किया जा सके, और विद्या भी वही है, जिससे #भगवान में चित्त लग जाये ।।


महाजनस्य संसर्गः, कस्य नोन्नतिकारकः।
पद्मपत्रस्थितं तोयम्, धत्ते मुक्ताफलश्रियम्॥ -पंचतंत्र

महापुरुषों का सामीप्य किसके लिए लाभदायक नहीं होता,
कमल के पत्ते पर पड़ी हुई पानी की बूँद मोती जैसी शोभा प्राप्त कर लेती है।


दूरतः शोभते मूर्खो लम्बशाटपटावृतः ।
तावच्च शोभते मूर्खो यावत्किञ्चिन्न भाषते ॥ – #चाणक्यनिती
लंबी शाल तथा खेस इत्यादि धारण किया हुआ मूर्ख दूर से शोभित होता है। लेकिन वह तब तक ही शोभित होता है जब तक कुछ बोलता नहीं है!

पटुत्वं सत्यवादित्वं कथायोगेन बुध्यते।
अस्तब्धत्वमचापल्यं प्रत्यक्षेणावगम्यते ॥ -#हितोपदेश मित्रलाभ
मनुष्य में स्थित चतुराई और सत्यवादिता उसके साथ वार्तालाप करने से पता चलती है; लेकिन उसमें जो अचंचलता अथवा गंभीरता है वो तो उसे देखते ही मालूम पड़ जाता है।


मन्ये सत्यमहं लक्ष्मीः समुद्राद्धूलिरुत्थिता।
पश्यन्तोऽपि न पश्यन्ति सन्तो विह्वललोचनाः॥ -महासुभाषितसंग्रह
मैं मानता हूँ कि लक्ष्मी (धन) वास्तव में समुद्र में से उठी धूल जैसी है;
क्योंकि उस धन से विह्वल हुई आँखोंवाले लोग आंखें होने पर भी अंधे हो जाते है.


असूयैकपदं मृत्युरतिवादः श्रियो वधः।
अशुश्रूषा त्वरा श्लाघा विद्यायाः शत्रवस्त्रयः॥-उद्योग, महाभारत
विद्यार्थी के लिए ईर्षा मृत्यु के समान है।
अधिक या अपशब्द बोलना संपत्तिनाशक है।
तथा सेवाविमुख होना, पढाई में जल्दबाजी करना,
और स्वयं की प्रशंसा करना- ये तीन विद्या के शत्रु है।


नागुणी गुणिनं वेत्ति गुणी गुणिषु मत्सरी ।
गुणी च गुणरागी च सरलो विरलो जनः ॥ -सुभाषितरत्नभाण्डागारः
गुणहीन व्यक्ति गुणवान को नहीं पहचान सकता।
गुणवान व्यक्ति अन्य गुणवान व्यक्तियों से जलता है।
स्वयं गुणवान होकर अन्य गुणी व्यक्ति के गुणों से अनुराग रखने वाला सरल व्यक्ति बहुत कम होता है।


अनुष्ठानेन रहिता पाठमात्रेण केवलम्।
रञ्जयत्येव या लोकान् किं तया शुकविद्यया ॥
–दर्पदलनम् ३.३१
जो आचरण से रहित, केवल पाठ के द्वारा लोगों का मनोरंजन करता है, ऐसी तोते के समान विद्या से क्या लाभ?


सन्तः कुर्वन्ति यत्नेन धर्मस्यार्थे धनार्जनम् ।धर्माचारविहीनानां द्रविणं मलसञ्चयः ॥
-धम्मपदम्
सन्तजन धर्म के लिए प्रयत्न से धन कमाते हैं। जो धर्म और आचारों से रहित हैं, उनका धनार्जन मल संग्रह करने के समान है।


नयस्य विनयो मूलं विनयः शास्त्रनिश्चयः ।
विनयो हीन्द्रियजयः तद्युक्तः शास्त्रमृच्छति ॥ -सुभाषितसुधानिधि
विनय नीति का मूल है, विनय की महानता शास्त्रों में प्रतिपादित कि है। विनयभाव ही इन्द्रिय जय में साधक है। इस विनय से युक्त पुरूष ही शास्त्रों का अध्ययन कर पाता है।


कालाशी स्वल्पसन्तुष्टः सुनिद्रः शीघ्रचेतनः।
प्रभुभक्तश्च शूरश्च ज्ञातव्याः षट् शुनो गुणाः ॥ – #चाणक्यनीति
समय पर खाना, थोड़े में सन्तुष्ट होना, अच्छी नींद लेना,
जल्दी जगना, स्वामीभक्ति , और शूरता – यह छ गुण
कुत्ते से सीखने योग्य हैं।


मन्ये मोहपिशाचस्य स्थानं यौवनदुर्वनम् ।
यत्र कामादयः क्रूरा यातुधानाः सहस्रशः॥ – #सुभाषितरत्नाकर
मेरा यह मानना है कि मोह रूपी पिशाच का स्थान
यौवन रूपी दुर्गम वन में होता है
जहां काम वासना आदि अन्यहिंसक
और निर्दय दैत्य हजारों की संख्या में रहते हैं |


दीपो भक्षयते ध्वान्तं कज्जलं च प्रसूयते ।
यदन्नं भक्षयेन्नित्यं जायते कर्म तादृशम्॥ -वृद्धचाणक्य
दीपक अन्धेरे को खाता है, और
कालेपन को (जन्म) देता है।
नित्य जिसप्रकार का खाना खायेगा,
उसी प्रकार का कर्म हो जाता है।


त्यज दुर्जनसंसर्गं भज साधुसमागमम् ।
कुरु पुण्यमहोरात्रं स्मर नित्यमनित्यतः॥ #ChanakyaNiti
दुष्टों का साथ छोड़ दो,
सज्जनों का साथ करो,
रात-दिन अच्छे काम करो
तथा सदा ईश्वर को याद करो ।
यही मानव का धर्म है ।


यद् दूरं यद् दुराराध्यं यच्च दूरे व्यवस्थितम् ।
तत्सर्वं तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् ।। -चाणक्य नीति:
जो वस्तु जितनी अधिक दूर है, उसे उतना ही तप [ परिश्रम / प्रयत्न ]करके प्राप्त करना संभव है । परिश्रम ही सबसे शक्तिशाली वस्तु है ।


नात्यन्तं सरलैर्भाव्यं गत्वा पश्य वनस्थलीम् ।
छिद्यन्ते सरलास्तत्र कुब्जास्तिष्ठन्ति पादपाः ॥ -चाणक्यनीतिदर्पण
बहुत अधिक सरल स्वभाव का नहीं होना चाहिए।
वनस्थल में जाकर देखें कि कैसे सीधे तने वाले पेड़ काटे जाते हैं और वहीं टेड़ेमेड़े पेड़ छोड़ दिए जाते हैं।


प्रजासुखे सुखं राज्ञः प्रजानां तु हिते हितम् ।
नात्मप्रियं हितं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं हितम् ॥ -कौटिलीय अर्थशास्त्र
प्रजा के सुख में राजा का सुख निहित है,
प्रजा के हित में ही उसे अपना हित दिखना चाहिए ।
जो स्वयं को प्रिय लगे उसमें राजा का हित नहीं है,
उसका हित तो प्रजा को जो प्रिय लगे उसमें है ।


गुणैरुत्तमतां यान्ति नोच्चैरासनसंस्थितैः ।
प्रसादशिखरस्थोऽपि किं काको गरुडायते ॥
गुणों से ही मनुष्य बड़ा बनता है, न कि किसी ऊंचे स्थान पर बैठ जाने से ।
राजमहल के शिखर पर बैठ जाने पर भी कौआ गरुड़ नहीं बनता ।


दुर्जनस्य च सर्पस्य वरं सर्पो न दुर्जनः ।
सर्पो दंशति काले तु दुर्जनस्तु पदे पदे ॥३-४॥
दुर्जन मनुष्य एवं सांप में सांप ही बेहतर है।
सांप तो तब डंसता है जब परिस्थिति आ पड़े,
किंतु दुर्जन तो पग-पग पर हानि पहुंचाता है।


नैव पश्यति जन्मान्धः कामान्धा नैव पश्यन्ति ।
मदोन्मत्ता न पश्यन्ति अर्थी दोषं न पश्यति ॥
जन्म से अंधा व्यक्ति देख नहीं पाता।
काम से अंधे हुए लोग भी देख नहीं पाते।
उन्मत्त लोग भी नहीं देख पाते।
इसी प्रकार स्वार्थी व्यक्ति को भी दोष नहीं दिखता।


गतवयसामपि पुंसां येषामर्था भवन्ति ते तरुणाः ।
अर्थे तु ये हीना वृद्धास्ते यौवनेऽपि स्युः ॥
उम्र ढल जाने पर भी वे पुरुष युवा रहते हैं जिनके पास धन रहता है ।
इसके विपरीत जो धन से क्षीण होते हैं वे युवावस्था में भी बुढ़ा जाते हैं ।


लोभमूलानि पापानि संकटानि तथैव च।
लोभात्प्रवर्तते वैरं अतिलोभात्विनश्यति ॥
लोभ पाप और सभी संकटों का मूल कारण है,
लोभ शत्रुता में वृद्धि करता है,
अधिक लोभ करने वाला विनाश को प्राप्त होता है ।


गच्छन् पिपिलिको याति योजनानां शतान्यपि ।
अगच्छन् वैनतेयः पदमेकं न गच्छति ॥
लगातार चल रही चींटी सैकड़ों योजनों की दूरी तय कर लेती है,
परंतु न चल रहा गरुड़ एक कदम
आगे नहीं बढ़ पाता है ।


जलबिन्दुनिपातेन क्रमशः पूर्यते घटः।
स हेतु सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च॥
भावार्थ :
एक-एक बूंद डालने से क्रमशः घड़ा भर जाता है ।
इसी तरह विद्या, धर्म और धन का भी संचय करना चाहिए ।


ज्येष्ठत्वं जन्मना नैव गुणैर्ज्येष्ठत्वमुच्यते |
गुणात् गुरुत्वमायाति दुग्धं दधि घृतं क्रमात् ||
समाज मे वरिष्ठता जन्मजात प्राप्त नहीं होती है |
गुणवान होने पर ही व्यक्ति को ज्येष्ठत्व उसी प्रकार प्राप्त होता है
जैसे कि दूध क्रमशः दही और घी में परिवर्तित हो कर प्राप्त करता है |


लोभ मूलानि पापानि संकटानि तथैव च |
लोभात्प्रवर्तते वैरं अतिलोभात्विनश्यति ||
लोभ सभी पापों का और विभिन्न संकटों का मूल कारण है |
लोभ से वैर उत्पन्न होता है तथा इससे भी आगे
अत्यन्त लोभ करने से व्यक्ति का विनाश भी हो जाता है |


न दैवमपि सञ्चित्य त्यजेदुद्योगमात्मनः ।
अनुद्योगेन कस्तैलं तिलेभ्यः प्राप्तुमर्हति ॥
दैव यानी भाग्य का विचार करके व्यक्ति को प्रयत्न/प्रयास करना
नहीं छोड़ देना चाहिए ।
भला समुचित प्रयास के बिना कौन तिलों से तेल प्राप्त कर सकता है ?


सद्विद्या यदि का चिन्ता वराकोदर पूरणे ।
शुकोऽप्यशनमाप्नोति रामरामेति च ब्रुवन् ॥
यदि सद्विद्या हो तो क्षुद्र पेट भरने की चिंता करने का कारण नहि ।
तोता भी “राम राम” रटने से खुराक पा हि लेता है ।


दातव्यं भोक्तव्यं धनविषये संचयो न कर्तव्य:।
पश्येह मधुकरीणां संचितार्थ हरन्त्यन्ये।।
दान कीजिये अथवा उपभोग,किन्तु धन का संचय न कीजिये।
मधुमक्खी का संचित मधु कोई और ले जाता है।


नास्ति विद्या समं चक्षु नास्ति सत्य समं तप:।
नास्ति राग समं दुखं नास्ति त्याग समं सुखं॥
विद्या के समान आँख नहीं है,
सत्य के समान तपस्या नहीं है,
आसक्ति के समान दुःख नहीं है
और त्याग के समान सुख नहीं है।


न धैर्येण विना लक्ष्मी-
र्न शौर्येण विना जयः।
न ज्ञानेन विना मोक्षो
न दानेन विना यशः॥
धैर्य के बिना धन, वीरता के बिना विजय, ज्ञान के बिना मोक्ष और
दान के बिना यश प्राप्त नहीं होता है॥


मूर्खस्य पञ्च चिन्हानि गर्वो दुर्वचनं तथा।
क्रोधश्च दृढवादश्च परवाक्येष्वनादरः॥9॥
मूर्खों के पाँच लक्षण हैं:
गर्व, अपशब्द, क्रोध, हठ और दूसरों की
बातों-विचारों का अनादर।


अशनं मे वसनं मे जाया मे बन्धुवर्गो मे ।
इति मे मे कुर्वाणं काल वृको हन्ति पुरुषाजम् ॥
अन्न मेरा, वस्त्र मेरा, स्त्री मेरी, सगे-संबंधी मेरे…
ऐसे ‘मेरा, मेरा’ (मे, मे..) करनेवाले पुरुषरुपी बकरे को, कालरुपी सूअर मार डालता है ।


माता शत्रु: पिता वैरी येन बालो न पाठित:।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा।।
जो अपने बालक को पढाते नहि, ऐसी माता शत्रु समान और पित वैरी है;
क्यों कि हंसो के बीच बगुले की भाँति, ऐसा अनपढ़ मनुष्य विद्वानों की सभा में
शोभा नहि देता !


वागाडम्बरवान् लोके न किञ्चित्कर्तुमर्हतिl
गर्जद्‍घनाः न वर्षन्ति न गर्जन्ति घनाघनाः ll
जो लोग केवल बात करते हैं वे बहुत कुछ हासिल नहीं करते हैं।
गरजने वाले बादल बरसते नहीं हैं, घने बरसनेवाले बादल गरजते नहीं हैं!


मूर्खा यत्र न पूज्यते धान्यं यत्र सुसंचितम् ।
दंपत्यो कलहं नास्ति तत्र श्रीः स्वयमागतः ॥ -चाणक्यनिती
अर्थ- जहाँ मूर्ख को सम्मान नहीं मिलता हो, जहाँ अनाज अच्छे तरीके से रखा जाता हो
और जहाँ पति-पत्नी के बीच में लड़ाई नहीं होती हो. वहाँ लक्ष्मी खुद आ जाती है.


माता मित्रं पिता चेति स्वभावात् त्रितयं हितम्।
कार्यकारणतश्चान्ये भवन्ति हितबुद्धयः॥
माता पिता और मित्र ये तीनो कहने के लिए तो तीन होते है
पर ये एक ही होते है क्योंकि ये तीनो ही अपने स्वभाव से हमेशा हित ही करते है।


यः स्वभावो हि यस्यास्ति स नित्यं दुरतिक्रमः।
श्वा यदि क्रियते राजा तत् किं नाश्रात्युपानहम्।।
जिसका जो स्वभाव होता है वह नित्य वैसा ही रहता है।
यदि कुत्ते को राजा भी बनाया जाय तो क्या वह जूता चबाना छोड़ देगा ?


न ह्रश्यत्यात्मसम्माने नावमानेन तप्यते।
गंगो ह्रद इवाक्षोभ्यो य: स पंडित उच्यते॥ -विदूरनिती
जो व्यक्ति मान-सम्मान पाकर अहंकार नहीं करता और
न अपमान ही से पीड़ित होता है।
जो जलाशय की भाँति सदैव क्षोभ रहित और शान्त रहता है,
वही ज्ञानी है।


योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुखैच्छया।
स जीवांश्च मृतश्चैव न क्वचित् सुखमेधते॥ – मनुस्मृति 5.45
जो अपने सुख के लिए अहिंसक जीवों को मारता है,
वह इस जीवन में या जन्मान्तर में कहीं और कभी भी सुख नहीं पाता।


ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्द विग्रहः।
अनादिरादि गोविन्दः सर्वकारण कारणम्॥ – ब्रह्मसंहिता
श्री कृष्ण परम ईश्वर हैं तथा #सच्चिदानन्द हैं।
वे आदि पुरुष #गोविन्द समस्त कारणों के कारण हैं।


सत्यं क्षमार्जवं ध्यानमानृशंस्यमहिंसनम्।
दमः प्रसादो माधुर्यं मृदुतेति यमा दश॥ – स्कंदपुराण

जीवन में सुख-शान्ति और उन्नति के लिए मनुष्य में शास्त्रो में लिखित
इन 10 गुणों का होना अत्यावश्यक है।
सत्य, क्षमा, सरलता, ध्यान, अक्रूरता, अहिंसा, मन एवं इन्द्रिय संयम, प्रसन्न रहना,
मधुर व्यवहार और अच्छा भाव।


नाधर्मश्चरितो लोके सद्यः फलति गौरिव।
शनैरावर्त्यमानस्तु कर्तुर्मूलानि कृन्तति॥ मनुस्मृति 4.172
किया हुआ पाप मिट्टी में बोये हुए बीज की भाँति तत्काल फल नहीं देता,
अपितु धीरे-धीरे फलित होने का समय आने पर पापकर्त्ता का समूल नाश कर देता है।


एकः पापानि कुरुते, फलं भुङ्क्ते महाजनः ।
भोक्तारो विप्रमुच्यन्ते, कर्ता दोषेण लिप्यते॥
अर्थः मनुष्य अकेला पाप करता है और बहुत से लोग उसका आनंद उठाते हैं। आनंद उठाने वाले तो बच जाते हैं, पर पाप करने वाला दोष का भागी होता है॥


विविधनिगमसारे विश्वरक्षैकधीरे
वृषशिख़रिविहारे वक्षसाश्मिष्टदारे ।
भगवति यदुवीरे भक्तबुद्धेरदूरे
भवतु चिरमुदारे भावना निर्विकारे ॥
Krishna is the essence of all the Vedas. He is the lone protector of the world. He wanders in the Sheshashaila. He has Lakshmi in his heart. He is never far away from the mind of the devotees. Heis the only one with no defects. Let my devotion in you be for ever. Vishvagunadarsha, Devotion, Krishna


सुलभा: पुरुषा: राजन्‌ सततं प्रियवादिन: ।
अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभ:।।
English : Oh dear King! you may easily find people who speak good for you and praise you, but people who speak of ills and who speak for your welfare, are rarely found in this world.
-हे राजा, कायम चांगलं बोलणारे लोक मिळणं खूप सोपं आहे. ऐकायला वाईट पण हितकर असे बोलणारे (वक्ता) आणि ऐकून घेणारे (श्रोता) मात्र मिळणं फार कठीण आहे.
अर्थात : हे राजन, प्रिय बोलने वेल पुरुष तो सुलभता से मिल जाते हैं, परंतु अप्रिय एवम् हितकर बात कहने वाले लोग बड़े दुर्लभ होते हैं !


महाभारत-युद्ध के प्रारंभ में युधिष्ठिर भीष्मपितामह ,गुरु द्रोणाचार्य और गुरुकृपाचार्य से युद्ध के लिए अनुमति माँगने के लिए गये
तब भीष्म , द्रोण और कृप ने उनसे यही कहा था कि
हम कौरवों की ओर से लड़ रहे हैं , दुर्योधन के अर्थ ने हमको बाँध रखा है !
युधिष्ठिर !!सच बात यह है कि मनुष्य अर्थ का दास है ,जबकि अर्थ किसी का दास नहीं है >>
अर्थस्य पुरुषो दासः दासस्त्वत्वर्थो न कस्यचित् !
इति सत्यं महाराज बद्धोस्म्यर्थेन कौरवैः ।
( महाभारत , भीष्मपर्व अध्याय ४३ श्लोक ३५ , ५० , ७६ )


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कक्षा 8 संस्कृत पाठ 1 सुभाषितानि
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