श्री महावीर चालीसा
Bhagwan_Mahavir_Swami
दोहाः-
सिद्ध समूह नमौं सदा, अरु सुमरुं अरहन्त |
निर आकुल निर्वाच्छ हो, गए लोक के अन्त |1|
मंगल मय मंगल करन, वर्धमान महावीर |
तुम चिंतत चिंता मिटे, हरो सकल भव पीर |2|
जय महावीर दया के सागर, जय श्री सन्मति ज्ञान उजागर |
शांत छवि मूरत अति प्यारी, वेष दिगम्बर के तुम धारी |3|
कोटि भानु से अति छवि छाजे, देखत तिमिर पाप सब भाजे |
महाबली अरि कर्म विदारे, जोधा मोह सुभट से मारे |4|
काम क्रोध तजि छोड़ी माया, क्षण में मान कषाय भगाया |
रागी नहीं, नहीं तू द्वेषी, वीतराग तू हित उपदेशी |5|
प्रभु तुम नाम जगत में सांचा, सुमिरत भागत भूत पिशाचा |
राक्षस यक्ष डाकिनी भागे, तुम चिंतत भय कोई न लागे |6|
महा शूल को जो तन धारे, होवे रोग असाध्य निवारे |
व्याल कराल होय फणधारी, विष को उगल क्रोध कर भारी |7|
महाकाल सम करै डसन्ता, निर्विष करो आप भगवन्ता |
महामत्त मद गज को झारे, भगे तुरत जब तुझे पुकारे |8|
फाड़ दाढ़ सिंहादिक आवे, ताको हे प्रभु तूही भगावे |
होकर प्रबल अग्नि जो जारे, तुम प्रताप शीतलता धारे |9|
शस्त्र धार अरि युद्ध लड़न्ता, तुम प्रसाद हो विजय तुरन्ता |
पवन प्रचण्ड चले झकझोरा, प्रभु तुम हरो होय भय चोरा |10|
झार खण्ड गिरि अटवी मांही, तुम बिनशरण तहां कोउ नांही |
वज्रपात करि घन गरजावे, मूसलधार होय तड़काव |11|
होय अपुत्र दरिद्र संताना, सुमिरत होत कुबेर समाना |
बन्दीगृह में बँधी जंजीरा, कठ सुई अनि में सकल शरीरा |12|
राजदण्ड करि शूल धरावै, ताहि सिंहासन तू ही बिठावे |
न्यायाधीश राजदरबारी, विजय करे होय कृपा तुम्हारी |13|
जहर हलाहल दुष्ट पियन्ता, अमृत सम प्रभु करो तुरन्ता |
चढ़े जहर, जीवादि डसन्ता, निर्विष क्षण में आप करन्ता |14|
एक सहस वसु तुमरे नामा, जन्म लियो कुण्डलपुर धामा |
सिद्धारथ नृप सुत कहलाये, त्रिशला मात उदर प्रगटाये |15|
तुम जनमत भयो लोक अशोका, अनहद शब्द भयो तिहुंलोका |
इन्द्र ने नेत्र सहस्र करि देखा, गिरि सुमेर कियो अभिषेका |16|
कामादिक तृष्णा संसारी, तज तुम भए बाल ब्रह्मचारी |
अथिर जान जग अनित बिसारी, बालपने प्रभु दीक्षा धारी |17|
शांत भाव धर कर्म विनाशे, तुरतहि केवल ज्ञान प्रकाशे |
जड़-चेतन त्रय जग के सारे, हस्त रेखवत् सम तू निहारे |18|
लोक-अलोक द्रव्य षट जाना, द्वादशांग का रहस्य बखाना |
पशु यज्ञों का मिटा कलेशा, दया धर्म देकर उपदेशा |19|
अनेकान्त अपरिग्रह द्वारा, सर्वप्राणि समभाव प्रचारा |
पंचम काल विषै जिनराई, चांदनपुर प्रभुता प्रगटाई |20|
क्षण में तोपनि बाढ़ि-हटाई, भक्तन के तुम सदा सहाई |
मुरख नर नहिं अक्षर ज्ञाता, सुमिरत पंडित होय विख्याता|
सोरठाः-
करे पाठ चालीस दिन नित चालीसहिं बार |
खेवै धूप सुगन्ध पढ़, श्रीमहावीर अगार ||
जनम दरिद्री होय, अरु जिसके नहिं सन्तान |
नाम वंश जग में चले, होय कुबेर समान ||
पूरनमल रचकर चालीसा, हे प्रभु तोहि नवावत शीशा |