पुरातन युग में एक प्रतापी राजा हुए—भर्तृहरि। वे केवल सम्राट ही नहीं, कवि हृदय भी थे। उनकी भार्या अनुपम रूपवती थी। सौंदर्य का वह अद्भुत माधुर्य, जिसने उनके हृदय में श्रृंगार का स्रोत प्रवाहित कर दिया। उन्होंने नारी-सौंदर्य, उसके सान्निध्य और वियोग के सूनेपन पर सौ श्लोकों की रचना की, जो कालांतर में श्रृंगार शतक के नाम से प्रसिद्ध हुए।
उसी राज्य में एक ब्राह्मण भी निवास करता था। उसकी तपस्या और निःस्वार्थ भक्ति से देवगण प्रसन्न हुए। एक दिन, देवता ने उसे एक अमर फल प्रदान किया और कहा, “इस फल को ग्रहण कर, तुम यौवन की अनंत आभा से आलोकित रहोगे।”
परंतु ब्राह्मण का अंतर्मन इस अमरत्व के बंधन को स्वीकार न कर सका। उसने सोचा, “मैं तो भिक्षाटन में जीवन यापन करता हूँ। इतने दीर्घ जीवन का मेरे लिए क्या प्रयोजन? यदि यह फल महाराज को अर्पित कर दूँ, तो वे चिरायु रहेंगे, और प्रजा दीर्घकाल तक उनके संरक्षण में सुखी रहेगी।” यह विचार कर वह राजसभा में पहुँचा और श्रद्धा से वह फल सम्राट को समर्पित कर दिया।
राजा ने फल को बड़े चाव से ग्रहण किया। किंतु उनके मन में एक और विचार जन्मा, “यदि यह फल मेरी प्रिय पत्नी को दे दूँ, तो वह यौवन से दीप्तिमान बनी रहेगी और मैं उसके साहचर्य का आनंद अधिक दिनों तक उठा सकूँगा। किंतु यदि मैंने स्वयं यह फल ग्रहण कर लिया, तो वह मुझसे पूर्व ही काल का ग्रास बन जाएगी, और उसके वियोग में जीवन एक असह्य दुःस्वप्न बन जाएगा।”
राजा ने अंततः वह फल अपनी रानी को दे दिया। परंतु प्रेम एक ऐसा अदृश्य तंतु है, जो सदा अपनी इच्छानुसार ही मार्ग खोजता है। रानी का हृदय किसी और के लिए स्पंदित होता था—नगर के कोतवाल के लिए। कोतवाल युवा, सुगठित काया और चतुर वाणी का स्वामी था। जब वह राजमहल में आया, तो रानी ने मधुर स्वर में कहा, “प्रिय! यह दिव्य फल ग्रहण करो। इससे तुम अमर हो जाओगे और सदा मेरे हृदय को प्रसन्न करते रहोगे।”
कोतवाल ने फल स्वीकार किया और राजमहल से बाहर निकला। किंतु मन में एक संशय उत्पन्न हुआ, “मुझे इस नश्वर जगत में धन और वैभव ही चाहिए। रानी के प्रेम का यह छलावा केवल एक प्रपंच है। फिर इस फल को खाकर मैं भी क्या करूँगा? इससे अच्छा हो कि इसे अपनी प्रिया, राजनर्तकी को भेंट कर दूँ। वह मुझसे सच्चा प्रेम करती है और सदैव मेरी आज्ञा का पालन करती है। यदि वह सदैव यौवन से युक्त रहेगी, तो और भी अधिक आनंददायिनी होगी।”
यह सोचकर कोतवाल राजनर्तकी के पास पहुँचा और प्रेमपूर्वक फल उसकी हथेली में रख दिया। नर्तकी मौन रही। कोतवाल के जाने के बाद वह पलभर को विचारमग्न हो गई। फिर उसने फल को निहारते हुए सोचा, “यह जीवन तो पहले ही छल और पाप से भरा है। कौन मूर्ख इस दु:खमय संसार में अमर रहना चाहेगा? राजा एक श्रेष्ठ पुरुष हैं। उन्हें ही यह फल मिलना चाहिए, ताकि वे चिरायु रहें और राज्य का कल्याण करें।”
वह अवसर देखकर राजसभा में पहुँची और महाराज के समक्ष नतमस्तक होकर बोली, “महाराज! देवताओं ने यह फल प्रदान किया है, जिससे अमरत्व प्राप्त होता है। इसे ग्रहण करें और प्रजा के कल्याण हेतु चिरायु बने रहें।”
राजा ने जब उस फल को देखा, तो वह विस्मय से भर उठे। यह तो वही फल था, जिसे उन्होंने अपनी प्रिय रानी को दिया था! आश्चर्य और दुख की मिश्रित भावना से उनका हृदय भारी हो गया। उन्होंने जांच-पड़ताल की, तो सत्य धीरे-धीरे उद्घाटित हुआ। जब उन्होंने यह जाना कि रानी का प्रेम छलावा था, कोतवाल का प्रेम स्वार्थमय था और यह संसार केवल वासनाओं का एक भ्रमजाल है, तब उनके भीतर वैराग्य की ज्वाला प्रज्वलित हो उठी।
उन्होंने उसी क्षण राजमहल त्याग दिया। मणिमय आभूषण उतार दिए, राजसी वस्त्र छोड़ दिए और तपस्वी का वसन धारण कर वन की ओर चल पड़े। ध्यान और साधना में लीन होकर उन्होंने वैराग्य पर सौ श्लोकों की रचना की, जो कालांतर में वैराग्य शतक के नाम से विख्यात हुए।
यह संसार एक मृगतृष्णा है। यहाँ हर व्यक्ति प्रेम की आशा में किसी अन्य की ओर देखता है, किंतु जिसे वह चाहता है, वह स्वयं किसी और की ओर उन्मुख रहता है। यह असंतोष, यह अपूर्णता, यही माया का जाल है। पूर्ण तो केवल एक ही है—परमात्मा। वही प्रेम का स्रोत है, वही शाश्वत है।