ब्रह्मचिंतन
ब्रह्मचिंतन
जे वासुदेवाख्य अव्यय। तें परब्रह्म मीच होय ।
ऐसा जयाचा निश्चय तो। मुक्त होय अन्य बद्ध ।।१ ।।
मींच परब्रह्म असे। ब्रह्माहून वेगळा नसे
ब्राह्मणें कीजे उपासना असे। ब्रह्मभाव धरून।।२।।
मीच परब्रह्म निश्चित। अबाध्य असंग चिद्रुप निश्चित।
प्रयत्नानें असें चिंतीत। राहता मुक्त होतसे।।३।।
जें सर्वोपाधिशून्य। जे निरंतर चैतन्य।
तें मी ब्रह्म न अन्य। वर्णाश्रम कैचे।।४।।
मी ब्रह्म असे जाणतां। त्या ये सर्वात्मता।
तन्मुक्तीला आड देवता। न येती आत्मा त्यांचाही होतो।।५।।
माझ्याहून देव भिन्न। असें करितां उपासना।
तया न होय ब्रह्मज्ञान। पशुसमान हो तो देवा।।६।।
मी आत्मा नच अन्य। ब्रह्मच मी शोकशून्य।
सच्चिदानंद मी धन्य। नित्यमुक्तस्वभाव मी।।७।।
असें आपणा ब्रह्म मानून।सतत वागे तया न दुष्कृत।
आणि दुष्कृतापासून। आपत्ति जाण न होती ।।८।।
आपण ब्रह्म मानून। राहवे सुखे करुन।
मी ब्रह्म आहे असे चिंतन। हो कां क्षणभर ही बरा।।९।।
ते महापातक निवारी जेवी अंधकारी।
सर्वाधकारा निवारी। म्हणोनि ब्रह्मचिंतन करावे।।१०।।
अज्ञानामुळे ब्रह्मापासून। आकाश झाले बुदबुदा समान।
वायु झाला आकाशापासून। वायुपासून तेज झाले।।११।।
उदक झाले तेजापासून। पृथ्वी झाली उदकापासून।
ब्रीहियवादिक पृथ्वीपासून।। झाले उत्पन्न अज्ञानामुळे।।१२।।
पृथ्वी विरतां उदकांत। उदक विरे तेजांत।
तेज विरे वायुत। वायु आकाशांत विरतसे।।१३।।
आकाश विरे अव्याकृत मायेत। तें विरे शुद्ध ब्रह्मांत।
त्याहूनि अन्य न उरत। ते ब्रह्म मी हरी विष्णु।।१४।।
यन्मायेनेकर्तृत्वभोकतृवादिक। तो अच्युत अनंत गोविंद मी एक।
तोच मी हरी आनंदरूपक। अज अमृत अशेष मी।।१५।।
नित्य निर्विकल्प निर्विकार। सच्चिदानंद अव्यय मी पर।
पंचकोशातीत परमेश्वर। अकर्ताअभोक्ता असंग मी।।१६।।
लोहचुंबकापरी माझे जवळ। इंद्रियादिकांचा होतो खेळ।
मी आदिमध्यांती मुक्त केवळ। स्वभावशुद्ध मी बद्ध नसे।।१७।।
मी ब्रह्मचि न संसारी। मी मुक्त हे चिंतिजें अंतरी।
हे चिंतन न घेणे तरी। वाक्य उच्चारी जे हे नित्य।।१८।।
या अभ्यासाने भ्रमरकीटकवत्। ब्रह्मभाव होय निश्चित।
संशय सोडून सतत। करावा निश्चित अभ्यास।।१९।।
हे ध्यान करिता एक मास। ब्रह्महत्येचाही होतो नाश।
एक वर्ष करितां हा अभ्यास। मिळती खास अष्टसिद्धी।।२०।।
यावज्जीव अभ्यास करितां। अंगी बाणे जीवन्मुक्तता।
मी देह न प्राणेंद्रिये तत्त्वता। ही दृढता होय त्याची।।२१।।
मी न मम न बुद्धि न चित्त। मी अहंकार न भूमी न पय।
मी तेज मी न वात। मी न आकाश सर्वथा।।२२।।
मी न शब्द न स्पर्श न रस। मी न गंध न रूप खास।
मी नोहे हा माया विलास। मग संसारमास मज कैचा।।२३।।
साक्षी स्वरूपे केवळ। मी शिवची निर्मळ।
मिथ्या जगज्जाल। होऊनी मृगजळवत राहे।।२४।।
ज्ञाने माझी ठायीच ते विरे मग एकच ब्रह्म मी उरे।
शेखी अनंत मीच न दुसरे। तोच मी सर्वेश सर्वशक्ति।।२५।।
मी आनंद सत्यबोध पुरातन। ऐसे असे हे ब्रह्म चिंतन।
हा प्रपंच मिथ्या सत्याद्वय। ब्रह्म मीचि एक।।२६।।
याविषयी वेदांत प्रमाण। गुरु स्वानुभव तिसरा जाण।
मी ब्रह्म न संसारी ब्रह्मभिन्न। मी न देह सनातन केवळ मी।।२७।।
एकचि अव्दयब्रह्म। येथे नसे नाना भ्रम।
हे कळावया ब्रह्मचिंतनक्रम। कथिला भ्रम निरसावया।।२८।।
इति श्री परमहंस परिव्राजकाचार्य श्री वासुदेवानंद सरस्वती विरचितं ब्रह्मचिंतन संपूर्णम्।।
इदं दत्तं न मम