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मुंडन संस्कार का धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व
हिंदू धर्म के 16 संस्कारों में से एक है- मुंडन संस्कार। शिशु जब जन्म लेता है, तब उसके सिर पर गर्भ के समय से ही कुछ बाल होते हैं, जिन्हें अशुद्ध माना जाता है और बच्चे का मुंडन संस्कार होता है। लेकिन इसके पीछे सिर्फ धार्मिक मान्यता नहीं बल्कि कुछ वैज्ञानिक कारण भी हैं। आगे की तस्वीरों पर क्लिक करें और पढ़ें-
1. कहते हैं कि जब बच्चा मां के गर्भ में होता है तब उसके सिर के बालों में बहुत से कीटाणु और बैक्टीरिया लगे होते हैं, जो साधारण तरीके से धोने से नहीं निकलते। इसलिए एक बार बच्चे का मुंडन जरूरी होता है।
2. मुंडन कराने से बच्चोँ के शरीर का तापमान सामान्य हो जाता है जिससे दिमाग व सिर ठंडा रहता है। साथ ही अनेक शारीरिक तथा स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं जैसे फोड़े, फुंसी, दस्त से बच्चों की रक्षा होती है और दांत निकलते समय होने वाला सिरदर्द व तालू का कांपना भी बंद हो जाता है।
3. शरीर पर और विशेषकर सिर पर विटामिन-डी (धूप के रूप) पड़ने से, कोशिकाएं जाग्रत होकर खून का प्रसारण अच्छी तरह कर पाती हैं जिनसे भविष्य में आने वाले बाल बेहतर होते हैं।
4. यजुर्वेद के अनुसार मुंडन संस्कार बल, आयु, आरोग्य तथा तेज की वृद्धि के लिए किया जाने वाला अति महत्वपूर्ण संस्कार है।
5. जन्म के बाद पहले वर्ष के अंत या फिर तीसरे, पांचवें या सातवें वर्ष की समाप्ति से पहले शिशु का मुंडन संस्कार करना आमतौर पर प्रचलित है।
6. शास्त्रीय और पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक शिशु के मस्तिष्क को पुष्ट करने, बुद्धि में वृद्धि करने तथा गर्भावस्था की अशुद्धियों को दूर कर मानवतावादी आदर्शों को प्रतिस्थापित करने हेतु मुंडन संस्कार किया जाता है।
7. आमतौर पर मुंडन संस्कार किसी तीर्थस्थल पर इसलिए कराया जाता है ताकि उस स्थल के दिव्य वातावरण का लाभ शिशु को मिले तथा उसके मन में सुविचारों की उत्पत्ति हो सके।
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कर्णभेद संस्कार क्या है
इस संस्कार में लड़कों का कान छेदन किया जाता है। अब यह संस्कार बहुत कम स्थानों पर देखने में आता है।
कान छिदवाने की प्रथा
कुछ लड़के शौकिया तौर पर कान छिदवा लेते हैं तो उनका मजाक बनाया जाता है। जबकि कान छिदवाने के ऐसे फायदे हैं जिसे जानेंगे तो मजाक उड़ाने वाले लोग भी कान छेदवाना चाहेंगे।
कान छेदवाने से लंबी उम्र
धार्मिक दृष्टि से देखें तो कर्णभेद 16 संस्कारों में 9वां संस्कार है। भगवान श्री राम और कृष्ण का भी वैदिक रीति से कर्णभेद संस्कार हुआ था। माना जाता है कि इससे बुरी शक्तियों का प्रभाव दूर होता है और व्यक्ति दीर्घायु होता है।
विज्ञान की दृष्टि में कान छेदवाने के लाभ
वैज्ञानिक दृष्टि से कर्णभेद संस्कार के ऐसे फायदे हैं जिसे जानकर आप चौंक जाएंगे। विज्ञान कहता है कि कर्णभेद से मस्तिष्क में रक्त का संचार समुचित प्रकार से होता है। इससे बौद्घिक योग्यता बढ़ती है।
चेहरे पे कान्ति
इसलिए इसे उपनयन संस्कार से पहले किया जाता था ताकि गुरुकुल जाने से पहले बच्चे की मेधा शक्ति बढ़ जाए और बच्चा बेहतर ज्ञान अर्जित कर पाए। इससे चेहरे पर कान्ति भी आती है और रूप निखरता है।
कर्णभेद के इस फायदे
वैज्ञानिक दृष्टि से यह भी माना जाता है कि इससे लकवा नामक रोग से बचाव होता है। पुरुषों के अंडकोष और वीर्य के संरक्षण में भी कर्णभेद का लाभ मिलता है।
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एक पवित्र संस्कार है विवाह
मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी मर्यादा पुरुषोत्तमश्रीराम एवं जानकी के विवाह की पावनतिथि मानी जाती है। अवध एवंजनकपुर में विवाह पंचमी का समारोहधूमधाम के साथ मनाया जाता है।भक्तगण भगवान की बरात निकालते हैंएवं मूर्तियों द्वारा भांवर सहित समस्तविधियां संपन्न कराई जाती हैं।
हिंदूजीवन पद्धति में विवाह एक धार्मिकएवं पवित्र संस्कार है। गर्भाधान सेलेकर मृत्यु के बाद तक हिंदू धर्म में 16 संस्कारों की व्यवस्था है। हिंदू जीवनदर्शन में संस्कारों का अत्यंत महत्व है।शरीर के विकास के साथ-साथ उसकी (शरीर) तथा मन की शुद्धि के लिएसमय-समय पर जो कर्म किए जाते हैं, उन्हें संस्कार कहते हैं। ये 16 संस्कारहैं: 1. गर्भाधान 2. पुंसवन 3. सीमंतोन्नयन 4. जातकर्म 5. नामकरण 6. निष्क्रमण 7. अन्नप्राशन 8 ़चूड़ाकर्म 9 ़ उपनयन 11. विद्यारंभ 12. समावर्तन 13. विवाह 14. वानप्रस्थ 15. संन्यास एवं 16. अंत्येष्टि।
मानवको अमर्यादित एवं स्वेच्छाचारी बनने सेरोकने के लिए, उसकी इंद्रियजन्यवासनाओं को संयमित रखने के लिए, भोग लालसा को मर्यादित बनाने केलिए तथा संतानोत्पति द्वारा वंश वृद्धिके लिए विवाह संस्कार अनिवार्य है। स्त्रीएवं पुरुष मिलकर एक पूर्ण शरीर बनातेहैं। एक-दूसरे के बिना दोनों अपूर्ण हैं।शंकर का नर-नारी का युग्माकार ‘अर्धनारीश्वर’ रूप भारतीय चिंतन कीइसी धारणा की पुष्टि करता है। भगवानकी कोटि में आने वाले राम, कृष्ण, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणपति आदि सभीविवाहित थे। अत्रि, याज्ञवल्क्य, वशिष्ठऔर जनक जैसे सभी योगी औरतपस्वी भी विवाहित थे। इसी सेअनुमान लगाया जा सकता है किपुरातन काल से ही भारतीय समाज मेंविवाह संस्कार का कितना महत्व रहाहै। हमारे यहां जीवन के चार पुरुषार्थबताए गए हैं: धर्म, अर्थ, काम एवंमोक्ष। इसके अलावा जीवन के चारआश्रम (पड़ाव) बताए गए हैं: ब्रह्माचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास। इनमेंभी विवाह की अनिवार्यता प्रमाणितहोती है। गृहस्थाश्रम में रहते हुए व्यक्तिशेष तीनों आश्रमों को संरक्षण देता है।ब्रह्माचर्य में जीवन व्यतीत करने वाले, वानप्रस्थी एवं संन्यास जीवन में प्रवेशकरने वाले साधकों का भरण-पोषणप्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से गृहस्थों द्वाराही किया जाता है।
विवाह केवलइंद्रियों की तृप्ति एवं भोग का साधनमात्र नहीं है। हमारे शास्त्रों के अनुसारसृष्टि के प्रारंभ से ही परमात्मा ने स्वयंको दो भागों में विभक्त या अभिव्यक्तकिया- वे आधे में पुरुष एवं आधे मेंनारी हो गए। आगे इन दोनों के सहयोगसे ही सृष्टि का विस्तार हुआ। सृष्टि केप्रत्येक स्तर में स्त्री शक्ति एवं पुरुषशक्ति विद्यमान है।
विवाह, स्नेहकी वह व्यवस्था है जो मानसिक, शारीरिक एवं आध्यात्मिक रूप सेइंद्रियों के विकास का साधन बनती है।विवाह संसार को सभ्य बनाने कामाध्यम है। शास्त्रों में आठ प्रकार केविवाह का वर्णन है। अच्छे शील-स्वभाव, गुणवान वर को घर में बुलाकर उसकापूजन कर कन्यादान करना एवंवस्त्राभूषण प्रदान करना ‘ब्राह्मा विवाह’ है। यज्ञ कर्म करते हुए ऋत्विज (यज्ञकर्त्ता) को दक्षिणा स्वरूप अलंकारादिसे भूषित कन्या देने को ‘दैव विवाह’ कहते हैं। वर से कुछ बैल एवं गायेंआदि लेकर फिर उसे विधिवत कन्याप्रदान करने का नाम ‘आर्ष विवाह’ है।वर से केवल यह कहकर कि ‘सहोभवंचरतां धर्मम’ (तुम दोनों मिलकर गृहधर्म की रक्षा करो), जो कन्या दी जातीहै, वह ‘प्रजापत्य विवाह’ है। कन्या केअभिभावकों एवं स्वयं कन्या को धनदेकर विवाह के लिए राजी करना ‘आसुरविवाह’ कहलाता है। कन्या एवं वरअपनी इच्छा से मिलें एवं परस्पर प्रेम-व्यवहार करें, उसे ‘गांधर्व विवाह’ कहतेहैं। शत्रुओं को मारकर, घायल करकेउनकी रोती-बिलखती कन्या को जबरनघर से उठा ले जाना ‘राक्षस विवाह’ है।सोती या अचेत अथवा पागल कन्या केसाथ लुक-छिप कर संभोग करना ‘पैशाच विवाह’ है। हमारे हिंदू समाज में ‘ब्राह्मा विवाह’ का ही प्रचलन है।
हमारे विवाह संस्कार के मुख्य चरण हैं:वाग्दान, मण्डप निर्माण, देव पूजा, वरपूजन, गोत्रोच्चारपूर्वक कन्यादान एवंपाणिग्रहण, अग्नि प्रदक्षिणा, सप्तपदी, हृदय स्पर्श तथा ध्रुव दर्शन। अग्निप्रदक्षिणा करते समय पहले तीन मेंकन्या आगे और शेष चार में वर आगेरहता है। सातवां पग समाप्त हुए बिनाविवाह पूरा नहीं माना जाता। इस प्रकारविवाह संस्कार द्वारा स्त्री एवं पुरुष अपनीभोग प्रवृत्तियों को एक दूसरे में केंद्रीभूतएवं नियंत्रित कर आत्म संयम एवंआत्मत्याग के अभ्यास द्वारा एक दूसरेके पूरक और आध्यात्मिक उन्नति मेंसहायक बनते हैं।
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वर्णाश्रम-धर्म के अनुसार १६ संस्कारों में से अंतिम संस्कार का अंक १६ वा है. धार्मिक दृष्टि से इस अंतिम संस्कार का उतना ही महत्व होता है जितना की अन्य १५ संस्कारों का, इन सभी संस्कारों को वर्णाश्रम-धर्म में वर्णित नियमों के अनुसार किया जाता है जो मनुष्य के सुखद-दुखद जीवन यात्रा का एक महत्वपूर्ण अंग होता है.
अंतिम संस्कार का महत्व:- इस संस्कार का पालन वेदों और शाश्त्रों में वर्णित नियमों के अनुसार जीव की मृत्यु उपरान्त किया जाता है ताकि जीव-आत्मा को इस भौतिक जगत से जो की चिंतोंऔ से परिपूर्ण है से मुक्ति मिल सके और अपने अगले पड़ाव की और बड़े. शाश्त्रों के अनुसार मृत-शरीर या स्थूल-शरीर का दाहसंस्कार २४ घंटों के अंदर-अंदर वेदों में वर्णित विधि और नियमों के अनुसार कर देना चाहिए. समय पर दाहसंस्कार न करना या ज्यादा समय तक मृत शरीर को खुले वातावरण में रखने से उसकी और नकारात्मक शक्तियां आकर्षित होना शुरू हो जाती है जो न तो उस मृत-शरीर के लिए ही अच्छा होता है और न ही उसके परिवार वालों के लिए.
जैसा की हम सभी जानते है कि यह पूरा ब्रह्माण्ड पंचतत्व से बना है ठीक उसी प्रकार हमारे शरीर का निर्माण भी पंचतत्वों से ही हुआ है. ये पांच तत्व :- पृथ्वी ( मिटटी ), जल ( वाष्प ), वायु ( हवा ), अग्नि ( आग ) और आकाश ( नभ ) है. ये पांच तत्व सर्वत्र विधमान है.
जब किसी जीव की मृत्यु हो जाती है तब यह अत्यंत जरूरी हो जाता है कि उस स्थूल-शरीर का दाहसंस्कार अर्थात अग्नि के द्वारा जला देना चाहिए. क्यूंकि, अग्नि ही परम साक्षी और पवित्र है और पूरी दुनिया में इससे बड़ा और कोई हतियार नहीं है. अग्नि के माध्यम से ही मृत-शरीर में विधमान पंचतत्वों को पृथक किया जा सकता है. इन पांच तत्वों का स्वतंत्र होना उतना ही आवयशक होता है जितना की भौतिक शरीर से आत्मा का. मृत-शरीर को अग्नि में भस्म इसलिए भी कर देना अति- आवयशक हो जाता है क्यूंकि पंचतत्वों को अगर शरीर से समय पर अलग नहीं किया गया तो मनुष्य का शरीर सड़ना शुरू कर देता है और फिर मृत-शरीर या स्थूल शरीर की और नकारात्मक शक्तिओं का आकर्षण बड़ी ही तेजी से होना शुरू हो जाता है उस शरीर से ताज्या नामक गैस निकलनी शुरू हो जाती है जो बादमें पूरे वायुमंडल को दूषित कर देती है. जब मृत-शरीर सड़ने की प्रक्रिया से गुजरता है तब उसमे अनेक प्रकार के कीटाणु-विषाणु जन्म लेते है जो आस-पास के माहौल को दूषित तो करते ही है अनेक प्रकार की बीमारियां भी जन्म ले लेती है.
दूसरा कारण यह भी है कि मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक उसके शरीर में अनेक किस्म की बीमारिया जन्म लेती है. आधुनिक विज्ञान की माने तो हमें ज्ञात होगा कि जब मनुष्य की मृत्यु होती है तब शरीर में व्याप्त बिमारी को जन्म देने वाले वायरस ( कीटाणु ) सक्रिय हो जाते है और तेजी उस मृत पड़े शरीर पर आक्रमण कर देते है जिससे उस शरीर की सड़ने की प्रक्रिया तेजी से होना शुरू हो जाती है. समय पर मृत-शरीर को भस्म न किये जाने से ये वायरस ( कीटाणु ) वायुमंडल में प्रवेश कर जाते है जो बाद में स्वस्थ मनुष्य पर आक्रमण करना शुरू कर देते है. यही एक मुख्य कारण है कि स्थूल-शरीर को अग्नि के हवाले कर देना चाहिए ताकि पांच तत्वों को पृथक किया जा सके और शरीर में व्याप्त नकारात्मक शक्ति अर्थात बीमारी पैदा करने वाले वायरस ( कीटाणु ) को ख़त्म किया जा सके.
मृत-शरीर को दफ्न या मिट्टी में नहीं गाड़ना चाहिए :- दुनिया में ऐसे अनेक समुदाय भी है जो मनुष्य की मृत्यु के बाद उसके शरीर को दफ्न या जमीन में गाड़ की परंपरा प्रचलित है जो आधुनिक दृष्टि से बिलकुल भी ठीक नहीं माना गया है. मनुष्य के मृत-शरीर को दफ्न करने से उसमे व्याप्त अनेक प्रकार का वायरस ( कीटाणु ) पूरी तरह से नहीं मर पाता. उदहारण के लिए : मान लीजिये किसी व्यक्ति की मृत्यु एच.आई. वी. या टी.बी. के वायरस से हो जाती है (जो की विज्ञानिक दृस्टि से सबसे खतरनांक वायरस माना गया है) और उसके शरीर को जमीन में दफ्न कर दिया जाता है तो क्या हमें यह मान लेना चाहिए कि एच.आई. वी. या टी.बी. का वायरस पूरी तरह से ख़त्म हो गया ? बिलकुल नहीं, ये वायरस निष्क्रिय अवस्था में जमीन अंदर ही पड़े रहते है. जब कोई जीव इस वायरस के संपर्क में आता है या फिर खाता है तब यह वायरस उसके माध्यम से जमीन की सतह पर आ जाते है जो बाद में वायुमंडल में वायु के माध्यम से उड़ना शुरू कर देते है जो बाद में मनुष्य जाति के लिए खतरा पैदा कर देते है.
आपने अस्पतालों और औषधालों में अवश्य देखा होगा कि जब कोई डॉक्टर या नर्स किसी मरीज को इंजेक्शन देती है तो उस नीडल ( सुई ) को एक बार प्रयोग में लाने के बाद अग्नि ( आग ) में जला देते है ताकि उस नीडल ( सुई ) में लगे वायरस ( कीटाणु ) को पूरी तरह से खत्म या नष्ट किया जा सके. इसका मतलब यह हुआ कि आधुनिक विज्ञान भी यह मान चूका है कि अगर खतरनांक वायरस को केवल अग्नि के माध्यम से ही नष्ट किया जा सकता है.
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