॥ कलशस्थापन॥
सूत्र सङ्केत- कलश की स्थापना और पूजा लगभग प्रत्येक कर्मकाण्ड में की जाती है। सामान्य रूप से कलश पहले से तैयार रखा रहता है और पूजन क्रम में उसका पूजन करा दिया जाता है। यदि कहीं इस प्रकरण का विस्तार करना आवश्यक लगे, तो स्थापना के लिए नीचे दिये गये पाँच उपचार कराये जाते हैं। यह उपचार पूर्ण होने पर कलश प्रार्थना करके आगे बढ़ा जाता है। यह विस्तृत कलश स्थापन, प्राण प्रतिष्ठा, गृह प्रवेश, गृह शान्ति, नवरात्र जैसे प्रकरणों में जोड़ा जा सकता है। बड़े यज्ञों में देव पूजन के पूर्व प्रधान कलश अथवा पञ्च वेदिकाओं के पाँचों कलशों पर एक साथ यह उपचार कराये जा सकते हैं।
स्थापना प्रसङ्ग के लिए रँगा हुआ कलश,उसके नीचे रखने का घेरा (ईडली), अलग पात्र में शुद्ध जल, कलावा, मङ्गल द्रव्य, नारियल पहले से तैयार रखने चाहिए।
शिक्षण एवं प्रेरणा- कलश को सभी देव शक्तियों, तीर्थों आदि का संयुक्त प्रतीक मानकर,उसे स्थापित- पूजित किया जाता है। कलश को यह गौरव मिला है, उसकी धारण करने की क्षमता- पात्रता से। घट स्थापन के साथ स्मरण रखा जाना चाहिए कि हर व्यक्ति,हर क्षेत्र, हर स्थान में धारण करने की अपनी क्षमता होती है। उसे सजाया- सँवारा जाना चाहिए। उसके लिए उपयुक्त आधार दिया जाना चाहिए।
पात्र में पवित्र जल भरते हैं। श्रद्धा और पवित्रता से भरी- पूरी पात्रता ही धन्य होती है। उसमें मङ्गल द्रव्य डालते हैं। पात्रता को मङ्गलमय गुणों से विभूषित किया जाना चाहिए। कलावा बाँधने का अर्थ है- पात्रता को आदर्शवादिता से अनुबन्धित करना। नारियल- श्रीफल, सुख- सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है। उसकी स्थापना का तात्पर्य है कि ऐसी व्यवस्थित पात्रता पर ही सुख- सौभाग्य स्थिर रहते हैं।
क्रिया और भावना- पाँचों उपचार एक- एक करके मन्त्रों के साथ सम्पन्न करें, उनके अनुरूप भावना सभी लोग बनाये रखें।
१- घटस्थापन- मन्त्रोच्चार के साथ कलश को निर्धारित स्थान या चौकी आदि पर स्थापित करें। भावना करें कि अपने- अपने प्रभाव क्षेत्र की पात्रता प्रभु चरणों में स्थापित कर रहे हैं।
ॐ आजिघ्र कलशं मह्या त्वा विशन्त्विन्दवः। पुनरूर्जा निवर्त्तस्व
सा नः सहस्रं धुक्ष्वोरुधारा पयस्वती पुनर्मा विशताद्रयिः। -८.४२
अर्थात्- हे महिमामयी गौ! आप इस कलश (यज्ञ से उत्पन्न पोषण युक्त मण्डल) को सूँघे (वायु के माध्यम से ग्रहण करें), इसके सोमादि पोषक तत्त्व आपके अन्दर प्रविष्ट हों। उस ऊर्जा को पुनः सहस्रों पोषक धाराओं द्वारा हमें प्रदान करें। हमें पयस्वती (दुग्ध, गौओं के पोषक- प्रवाहों) एवं ऐश्वर्य आदि की पुनः- पुनः प्राप्ति हो।
२- जलपूरण- मन्त्रोच्चार के साथ सावधानी से शुद्ध जल कलश में भरें। भावना करें कि समर्पित पात्रता का खालीपन श्रद्धा- संवेदना से, तरलता- सरलता से लबालब भर रहा है।
ॐ वरुणस्योत्तम्भनमसि वरुणस्य स्कम्भसर्जनीस्थो
वरुणस्यऽऋतसदन्यसि वरुणस्यऽऋ सदनमसि
वरुणस्यऽऋतसदनमासीद॥ -४.३६
अर्थात्- हे काष्ठ उपकरण! आप वरुण रूपी सोम की उन्नति करने वाले हों। हे शम्ये! आप वरुण देव की गति को स्थिर करें। (उदुम्बर काष्ठ निर्मित हे आसन्दे!) आप यज्ञ में वरुण (रूपी बँधे हुए सोम) के आसन स्वरूप हैं। आसन्दी पर बिछे हुए हे कृष्णाजिन्! आप वरुण रूपी सोम के यज्ञ- स्थान हैं। वस्त्र में बँधे हुए वरुण (रूपी सोम!) के आसन स्वरूप इस कृष्णाजिन् पर सुखपूर्वक आसन ग्रहण करें।
३- मङ्गलद्रव्यस्थापन- मन्त्र के साथ कलश में दूर्वा- कुश, पूगीफल- सुपारी, पुष्प और पल्लव डालें। भावना करें कि स्थान और व्यक्तित्व में छिपी पात्रता में दूर्वा जैसी जीवनी शक्ति, कुश जैसी प्रखरता, सुपारी जैसी गुणयुक्त स्थिरता, पुष्प जैसा उल्लास तथा पल्लवों जैसी सरलता, सादगी का सञ्चार किया जा रहा है।
ॐ त्वां गन्धर्वा ऽ अखनँस्त्वां इन्द्रस्त्वां बृहस्पतिः।
त्वामोषधे सोमो राजा विद्वान्यक्ष्मादमुच्यत॥ — १२.९८
अर्थात्- हे ओषधे! गन्धर्वों (ओषधि गुणों को पहचानने वाले) ने आपका खनन किया, इन्द्रदेव और बृहस्पतिदेव (परम वैभव सम्पन्न और वेदवेत्ता विद्वान्) ने आपका खनन किया, तब ओषधिपति सोम ने आपकी उपयोगिता को जानकर क्षय रोग को दूर किया।
४- सूत्रवेष्टन- मन्त्र के साथ कलश में कलावा लपेटें। भावना करें कि पात्रता को अवाञ्छनीयता से जुड़ने का अवसर न देकर उसे आदर्शवादिता के साथ अनुबन्धित कर रहे हैं, ईश अनुशासन में बाँध रहे हैं।
ॐ सुजातो ज्योतिषा सह शर्म वरूथमासदत्स्वः।
वासो अग्ने विश्वरूप * सं व्ययस्व विभावसो॥ -११.४०
अर्थात्- हे अग्निदेव! आप तेजयुक्त ज्वालाओं से विधिवत् प्रज्वलित होकर, श्रेष्ठ सुखप्रद यज्ञ वेदिका को सुशोभित करें। हे कान्तिमान् अग्ने! आप अपनी विशिष्ट आभा से वस्त्रों की भाँति जगत् को भली प्रकार धारण करें अर्थात् पृथिवी का आवरण बनकर उसकी सुरक्षा करें।
५- नारिकेल संस्थापन- मन्त्र के साथ कलश के ऊपर नारियल रखें। भावना करें कि इष्ट के चरणों में समर्पित पात्रता सुख- सौभाग्य की आधार बन रही है। यह दिव्य कलश जहाँ स्थापित हुआ है, वहाँ की जड़- चेतना सारी पात्रता इन्हीं संस्कारों से भर रही है।
ॐ याः फलिनीर्या ऽ अफलाऽ अपुष्पा याश्च पुष्पिणीः।
बृहस्पतिप्रसूतास्ता नो मुञ्चन्त्व * हसः। -१२.८९
अर्थात्- फलों से युक्त, फलों से रहित, पुष्पयुक्त तथा पुष्परहित ऐसी ये सभी ओषधियाँ विशेषज्ञ, वैद्य द्वारा प्रयुक्त होती हुईं हमें रोगों से मुक्ति दिलाएँ। तत्पश्चात् ॐ मनोजूतिर्जुषताम् …( मन्त्र से पेज ४० (दोनों हाथ लगाकर) प्रतिष्ठा करें। बाद में तत्त्वायामि।।।( मन्त्र पेज ३९ से) मन्त्र का प्रयोग करते हुए पञ्चोपचार पूजन करें और कलशस्य मुखे विष्णुः( मन्त्र पेज ४१ से) इत्यादि मन्त्रों से प्रार्थना करें।