Mool Shanti Puja Vidhi in Hindi
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मूल शांति पूजन सामग्री लिस्ट इन हिंदी
मूल शांति करने की विधि पीडीऍफ़
मूल शांति पुस्तक pdf
मूल नक्षत्र 2020
मूल नक्षत्र शान्ति के उपाय
अश्लेषा नक्षत्र पूजा विधि
मूल एवं शांति के उपाय
शास्त्रों की मान्यता है कि संधि क्षेत्र हमेशानाजुक और अशुभ होते हैं। जैसे मार्ग संधि (चौराहे-
तिराहे), दिन-रात का संधि काल, ऋतु, लग्न औरग्रह के संधि स्थल आदि को शुभ नहीं मानते हैं। इसीप्रकार गंड-मूल नक्षत्र भी संधि क्षेत्र में आने सेनाजुक और दुष्परिणाम देने वाले होते हैं। शास्त्रों केअनुसार इन नक्षत्रों में जन्म लेने वाले बच्चों केसुखमय भविष्य के लिए इन नक्षत्रों की शांतिजरूरी है। मूल शांति कराने से इनके कारण लगने वाले दोष शांत हो जाते हैं।
क्या हैं गंड मूल नक्षत्र
राशि चक्र में ऎसी तीन स्थितियां होती हैं, जबराशि और नक्षत्र दोनों एक साथ समाप्त होते हैं।
यह स्थिति “गंड नक्षत्र” कहलाती है। इन्हींसमाप्ति स्थल से नई राशि और नक्षत्र की शुरूआत
होती है। लिहाजा इन्हें “मूलनक्षत्र” कहते हैं।
इसतरह तीन नक्षत्र गंड और तीन नक्षत्र मूल कहलाते हैं।
गंड और मूल नक्षत्रों को इस प्रकार देखा जा सकताहै।
कर्क राशि व अश्लेषा नक्षत्र एक साथ समाप्त होतेहैं।
यहीं से मघा नक्षत्र और सिंह राशि का उद्गमहोता है।
लिहाजा अश्लेषा गंड और मघा मूलनक्षत्र है।
वृश्चिक राशि व ज्येष्ठा नक्षत्र एक साथ समाप्तहोते हैं, यहीं से मूल नक्षत्र और धनु राशि की शुरूआतहोने के कारण ज्येष्ठा “गंड” और “मूल” मूल कानक्षत्र होगा।
मीन राशि और रेवती नक्षत्र एक साथ समाप्तहोकर यहीं से मेष राशि व अश्विनी नक्षत्र की
शुरूआत होने से रेवती गंड तथा अश्विनी मूल नक्षत्रकहलाते हैं।
उक्त तीन गंड नक्षत्र अश्लेषा, ज्येष्ठा और रेवतीका स्वामी ग्रह बुध है
तथा तीन मूल नक्षत्र मघा,
मूल व अश्विनी का स्वामी ग्रह केतु है।
27 या 10वेंदिन जब गंड-मूल नक्षत्र दोबारा आए उस दिन
संबंधित नक्षत्र और नक्षत्र स्वामी के मंत्र जप, पूजाव शांति करा लेनी चाहिए। इनमें से जिस नक्षत्र मेंशिशु का जन्म हुआ उस नक्षत्र के निर्धारित संख्यामें जप-हवन करवाने चाहिए।
गंड मूल नक्षत्रों में जन्म का फल
मूल नक्षत्र के प्रथम चरण में उत्पन्न होने वाले शिशु(पुल्लिंग) के पिता को कष्ट, द्वितीय चरण मेंमाता को कष्ट और तृतीय चरण में धन ऎश्वर्य हानिहोती है। चतुर्थ चरण में जन्म हो तो शुभ होता है।
जन्म लेने वाला शिशु (स्त्रीलिंग) हो तो प्रथम चरणमे श्वसुर को, द्वितीय में सास को और तीसरे चरण मेंदोनों कुल के लिए नेष्ट होती है।चतुर्थ चरण में जन्म हो तो शुभ होता है।
अश्लेषाके प्रथम चरण में जन्मे जातक के लिए शुभ, द्वितीय
चरण में धन ऎश्वर्य हानि और तृतीय चरण में माताको कष्ट होता है।
चतुर्थ चरण में जन्म हो तो पिता
को कष्ट होता है। जन्म लेने वाला शिशु स्त्रीलिंगहो तो प्रथम चरण में सुख समृद्धि और अन्य चरणों मेंसास को कष्ट कारक होती है।
मघा के प्रथम चरणमें जन्मे जातक/जातिका की माता को कष्ट,
द्वितीय चरण में पिता को कष्टकारक, तृतीय चरण
में सुख समृद्धि और चतुर्थ चरण में जन्म हो तो धन
लाभ।
ज्येष्ठा के प्रथम चरण में बडे भाई को नेष्ट, द्वितीय
चरण में छोटे भाई को कष्ट, तीसरे में माता को
तथा चतुर्थ चरण में जन्म होने पर स्वयं के लिए
कष्टकारक होता है। स्त्री जातक का जन्म हो तो
प्रथम चरण में जेठ को, द्वितीय में छोटी बहिन/देवर
को तथा तृतीय में सास/माता के लिए कष्ट। चतुर्थ
चरण में जन्म हो तो देवर के लिए श्रेष्ठ। रेवती के
प्रथम तीन चरणों में स्त्री/पुरूष जातक का जन्म हो
तो अत्यन्त शुभ, राज कार्य से लाभ तथा धन ऎश्वर्य
में वृद्धि होती है। लेकिन चतुर्थ चरण में जन्म हो तो
स्वयं के लिए कष्टकारक होता है। अश्विनी के
प्रथम चरण में पिता को कष्ट शेष तीन चरणों में धन-
ऎश्वर्य वृद्धि, राज से लाभ तथा मान सम्मान
मिलता है।
गंड मूल नक्षत्र के शांति उपाय
मूल शांति की सामग्री
———————————
घडा एक, करवा एक, सरवा एक, पांच प्रकार के रंग, नारियल एक,५०सुपारी,दूब, कुशा, बतासे, इन्द्र जौ, भोजपत्र, धूप,कपूर आटा चावल २ गमछे, दो गज लाल कपडा चंदोवे के लिये, मेवा ५० ग्राम, पेडा ५० ग्राम, बूरा ५० ग्राम, केला चार,माला दो, २७ खेडों की लकडी, २७ वृक्षों के अलग अलग पत्ते,२७ कुंओ का पानी, गंगाजल यमुना जल, हरनन्द का जल, समुद्र का जल अथवा समुद्र फ़ेन, आम के पत्ते, पांच रत्न, पंच गव्य
वन्दनवार,हल,२ बांस की टोकरी,१०१ छेद वाला कच्चा घडा,१ घंटी २ टोकरी छायादान के लिये, १ मूल की मूर्ति स्वनिर्मित, बैल गाय २७ सेर सतनजा,७ प्रकार की मिट्टी, हाथी के नीचे की घोडे के नीचे की गाय के नीचे की तालाब की सांप की बांबी की नदी की और राजद्वार की वेदी के लिये पीली मिट्टी।
हवन सामग्री
——————-
चावल एक भाग,घी दो भाग बूरा दो भाग, जौ तीन
भाग, तिल चार भाग,इसके अतिरिक्त मेवा अष्टगंध
इन्द्र जौ,भोजपत्र मधु कपूर आदि। एक लाख मंत्र के
एक सेर हवन सामग्री की जरूरत होती है,यदि कम
मात्रा में जपना हो तो कम मात्रा में प्रयोग करना
चाहिये।
शांति मंत्र
अश्विनी नक्षत्र (स्वामित्व अश्विनी कुमार):
“ॐ
अश्विनातेजसाचक्षु: प्राणेन सरस्वतीवीर्यम।
वाचेन्द्रोबलेनेंद्राय दधुरिन्द्रियम्। ॐ अश्विनी
कुमाराभ्यां नम:।।” (जप संख्या 5,000)।
अश्लेषा (स्वामित्व सर्प):
“ॐ नमोस्तु सप्र्पेभ्यो ये के
च पृथिवी मनु: ये अन्तरिक्षे ये दिवितेभ्य:
सप्र्पेभ्यो नम:।। ॐ सप्र्पेभ्यो नम:।।’ (जप संख्या
10,000)
मघा (स्वामित्व पितर):
“ॐ पितृभ्य: स्वधायिभ्य:
स्वधानम: पितामहेभ्य स्वधायिभ्य: स्वधा नम:।
प्रपितामहेभ्य स्वधायिभ्य: स्वधा नम:
अक्षन्नापित्रोमीमदन्त पितरोùतीतृपन्तपितर:
पितर: शुन्धध्वम्।। ॐ पितृभ्यो नम:/पितराय नम:।।”
(जप संख्या 10,000)
ज्येष्ठा (इन्द्र):
“ॐ त्रातारमिन्द्रमवितारमिन्द्र
हवे हवे सुह्न शूरमिन्द्रम् ह्वयामि शक्रं पुरूहूंतमिन्द्र
स्वस्तिनो मधवा धात्विंद्र:।। ॐ शक्राय नम:।।”
(जप संख्या 5,000)
मूल (राक्षस):
“ॐ मातेव पुत्र पृथिवी पुरीष्यमणि
स्वेयोनावभारूषा। तां विश्वेदेवर्ऋतुभि: संवदान:
प्रजापतिविश्वकर्मा विमुच्चतु।। ॐ निर्ऋतये नम:।।”
(जप संख्या 5,000)
रेवती (पूषा):
“ॐ पूषन् तवव्रते वयं नरिष्येम कदाचन
स्तोतारस्त इहस्मसि।। ॐ पूष्णे नम:।” (जप संख्या 5,000)
गंड नक्षत्र स्वामी बुध के मंत्र-:
“ॐ उदबुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्ठापूर्ते
संसृजेथामयं च अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन्
विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत।।” ( नौ हजार जप
कराएं। दशमांश संख्या में हवन कराएं। हवन में
अपामार्ग (ओंगा) और पीपल की समिधा काम में
लें।)
मूल नक्षत्र स्वामी केतु के मंत्र
“ॐ केतुं कृण्वन्न केतवे पेशो मय्र्याअपेशसे
समुषाभ्दिजायथा:।।” (सत्रह हजार जप कराएं और
इसके दशमांश मंत्रों के साथ दूब और पीपल की
समिधा काम में ले)
मूल शांति के उपाय- ज्येष्ठा के अन्तिम दो चरण तथा मूल के प्रथम दो चरण अभुक्त मूल कहलाते हैं। इन नक्षत्र में जन्म लेने वाले जातक के लिये नीचे लिखे मंत्रों का २८००० जप करवाने चाहिये,और २८वें दिन जब वही नक्षत्र आये तो मूल शान्ति का प्रयोजन करना चाहिये,जिस मन्त्र का जाप किया जावे उसका दशांश हवन करवाना चाहिये,और २८ ब्राह्मणों को भोजन करवाना चाहिये,बिना मूल शांति करवाये मूल नक्षत्रों का प्रभाव दूर नही होता है।
मंत्र- मूल नक्षत्र का बडा मंत्र यह है। ऊँ मातवे पुत्र पृथ्वी पुरीत्यमग्नि पूवेतो नावं मासवातां विश्वे र्देवेर ऋतुभिरू सं विद्वान प्रजापति विश्वकर्मा विमन्चतु॥ इसके बाद छोटा मंत्र इस प्रकार से है। ऊँ एष ते निऋते। भागस्तं जुषुस्व। ज्येष्ठा नक्षत्र का मंत्र इस प्रकार से है। ऊँ सं इषहस्तरू सनिषांगिर्भिर्क्वशीस सृष्टा सयुयऽइन्द्रोगणेन। सं सृष्टजित्सोमया शुद्धर्युध धन्वाप्रतिहिताभिरस्ता।
आश्लेषा मंत्र- ऊँ नमोऽर्स्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथ्वीमनु। ये अन्तरिक्षे ये दिवि तेभ्यरू सर्पेभ्यो नमरू॥
मूल शांति की सामग्री- घड़ा एक,करवा चार,सरवा एक,पांच रंग,नारियल एक,11 सुपारी,पान के पत्ते 11,दूर्वा,कुशा,बतासे 500 ग्राम ,इन्द्र जौ, भोजपत्र, धूप, कपूर, आटा चावल, गमछे 2, दो मी लाल कपड़ा , मेवा 250 ग्राम, पेड़ा 250 ग्राम, बूरा 250 ग्राम,माला दो, 27 खेडों की लकडी, 27 वृक्षों के अलग अलग पत्ते,27 कुंओ का पानी,गंगाजल, समुद्र फेन,आम के पत्ते,पंच रत्न,पंच गव्य वन्दनवार,बांस की टोकरी,101 छेद वाला कच्चा घडा,1घंटी 2 टोकरी छायादान के लिये,1 मूल की मूर्ति स्वनिर्मित, 27 किलो सतनजा, सप्तमृतिका, 3 सुवर्ण प्रतिमा, गोले 5, ब्राहमणों हेतु वस्त्र, पीला कपड़ा सवा मी, सफेद कपड़ा सवा मी, फल फूल मिठाई आदि ।
हवन सामग्री- चावल एक भाग,घी दो भाग बूरा दो भाग, जौ तीन भाग, तिल चार भाग,इसके अतिरिक्त मेवा अष्टगंध इन्द्र जौ,भोजपत्र मधु कपूर आदि। जितने जप किए जाँए उतनी मात्रा में हवन सामग्री बनानी चाहिए। पूजन जितना अच्छा होगा उसका प्रभाव भी उतना ही अच्छा होगा।पूजा सामग्री यथाशक्ति लानी चाहिए।
यह त्रिआयामी, त्रिगुणात्मक सृष्टि है। नक्षत्र २७ हैं। इन्हें तीन समान वर्गों में बाँटें, तो
(१) १ से ९,
(२) १० से १८ तथा
(३) १९ से २७
यह वर्ग बनते हैं। इन तीनों वर्गों की सन्धि वाले नक्षत्रों को मूल संज्ञक नक्षत्र माना गया है। वे हैं २७वाँ रेवती एवं प्रथम अश्विनी ९वाँ श्लेषा एवं १०वाँमघा तथा १८वाँ ज्येष्ठा एवं १९वाँ मूल। यह तीन नक्षत्र युग्म ऐसे हैं, जहाँ दो संलग्न नक्षत्र अलग- अलग राशियों में हैं; किन्तु किसी का कोई चरण दूसरी राशि में नहीं जाता। इसलिए इन्हें नक्षत्र चक्र के ‘मूल’ अर्थात् प्रधान नक्षत्र माना गया है। ऐसे महत्त्वपूर्ण नक्षत्रों को अशुभ मानने की परम्परा न जाने कहाँ सं चल पड़ी? वस्तुतः तथ्य यह है कि नक्षत्रों का सम्बन्ध मानवी प्रवृत्तियों से है। नक्षत्र चक्र के तीन मूल बिन्दुओं पर स्थित नक्षत्रों में मानव की ‘मूल’ वृत्तियों को तीव्रता से उछालने की चिशेष क्षमता है। मूल वृत्तियों में शुभ- अशुभ दोनों ही प्रकार की वृत्तियों होती हैं। अस्तु, विचारकों ने सोचा कि हीनवृत्तियाँ विकास पाकर परेशानी का कारण भी बन सकती हैं। उन्हें निरस्त करने वाले, कुछ उपचार पहले ही किए जाएँ तो अच्छा है। इसलिए हीन, पाशविक संस्कारों को निरस्त करने वाले, श्रेष्ठ संस्कारों को उभारने में सहयोग कर सकने वाले कुछ जप- यज्ञादि उपचार किए जायें तो अच्छा है। जिन घरों में गायत्री उपासना, यज्ञ, बलिवैश्व आदि सुसंस्कार जनक क्रम सहज ही होते रहते हैं, वहाँ मूल शान्ति के निमित्त अलग से कुछ करना आवश्यक नहीं। जिन परिजनों में ऐसे कुछ नियमित क्रम नहीं हैं, उनमें मूल शान्ति के नाम पर कुछ उपचारों की लकीर पीटने मात्र से जातक की वृत्तियों पर कुछ उल्लेखनीय प्रभाव पड़ता नहीं है। इसीलिए शास्त्र मत है कि जिन परिवारों में ऋषि प्रणीत चर्चाएँ नियमित रूप से होती हों, उनमें मूलशान्ति की आवश्यकता नहीं पड़ती। मानवोचित गुणों के विकास के लिए जिन परिवारों में योजनाबद्ध प्रयास होते हों, वहाँ मूल युक्त जातक विशेष सौभाग्य के कारण बनते हैं।
नोट – मूल की शान्ति के लिए सुविधानुसार जन्म के ११ वें या २७वें दिन रुद्रार्चन, शिवाभिषेक व महामृत्युञ्जय की विधि सहित जप व गायत्री महामन्त्र का जप, हवन कराने से अभुक्त मूल शान्ति होती है। गायत्री महामन्त्र के २७,००० मन्त्र जप व महामृत्युञ्जय मन्त्र के ११०० मन्त्र जप करना अनिवार्य है।
गण्ड मूल के नक्षत्र व उनका फल
मूलवास- मनुष्य की योनि पाठशाला के छात्र जैसा है। चराचर जगत् पाठ्यपुस्तक है। नाना योनियाँ इस पाठ्यपुस्तक के नाना अध्याय अथवा पाठ्यक्रम है, जिन्हें जीवरूपी छात्र यथा योनि पढ़ता, परीक्षा (इम्तहान )) के लिये मानव योनि में प्रवेश पाता है। मानव योनि पूरक परीक्षा के क्षण हैं। जिस प्रकार परीक्षा स्थल पर परीक्षक ही प्रश्नपत्र तथा उत्तर पुस्तिका छात्र को प्रदान करता है, उसी प्रकार आत्मा रूपी परीक्षक भी परिस्थितियों का प्रश्नपत्र तथा जीवन उत्तरपुस्तिका स्वंय जीवरूपी छात्र को प्रदान करता है। मनुष्य की योनि परीक्षा के क्षण हैं। परीक्षा का समय जन्म से मृत्युपर्यन्त है। जिस प्रकार परीक्षाफल तीन प्रकार का होता है, यथा उत्तीर्ण (पास) होना, अनुत्तीर्ण होना अथवा कुछ थोड़ी कमी के कारण उसे थोड़े समय उपरान्त पुनः परीक्षा में फिर से परीक्षा में आना। इस जीवन परीक्षा में भी जीवरूपी छात्र को इन्हीं अवस्थाओं से होकर गुजरना पड़ेगा। उत्तीर्ण होने पर अनन्त की राह है। उसे अगली कक्षा में प्रवेश मिलेगा, यदि उत्तीर्ण नहीं हो पाया और फेल हो गया तो उसे पुनः सारा पाठ्यक्रम दुहराने के लिये यथा योनियों से गुजरना होगा। इसके उपरान्त ही पुनः परीक्षा के लिये मानव योनि में प्रवेश मिलेगा। अल्प त्रुटियों की अवस्था में उसे लगभग कतिपय योनियों के उपरान्त ही पुनःपरीक्षा हेतु मनुष्य की योनि प्रदान की जायेगी।
इसीलिये जब भी घर में शिशु का जन्म होता है, घर में सूतक (छूत) का वास होता है। मन्दिर,पूजा आदि बन्द कर दिये जाते हैं, बरहा मनाया जाता है इसका पृष्ठ रहस्य यही है कि जन्मने वाला शिशु हमारा ही पूर्वज है अल्प त्रुटियों से रह गया था,फिर अपने घर लौट आया। बरहा पूजन में प्रायश्चित पूजन भी करते है उसी में मूल शान्ति विधि भी पूरी कर लेते हैं। यद्यपि मूल का वास- माघ,आषाढ़,आश्विन, और भाद्रपद माह- आकाश में, कार्तिक, चैत, श्रावण और पौष माह- पृथ्वी में, फाल्गुन, ज्येष्ठ, मार्गशीर्ष और वैशाख माह- पाताल में होता है। ‘भूतले वर्तमाने तु ज्ञेयो दोषोऽन्यथा न हि।’ अर्थात् जब पृथ्वी में मूल का वास हो तभी मूलपूजन का क्रम करना चाहिये अन्यथा सामान्य यज्ञादि से भी बारह (बरहा) पूजन का क्रम पूरा कर लेना चाहिये।
प्रारम्भिक कर्मकाण्ड मंगलाचरण से रक्षाविधान तक पूर्ण करें। तत्पश्चात् संकल्प करें।
॥ सङ्कल्प॥
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य
विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य श्रीब्रह्मणो
द्वितीये परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे
भूर्लोके जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्त्तैकदेशान्तर्गते……….क्षेत्रे……….मासानां मासोत्तमेमासे……….मासे……….पक्षे……….तिथौ……….वासरे
……….गोत्रोत्पन्नः………. नामाऽहं सत्प्रवृत्ति- संवर्द्धनाय,
दुष्प्रवृत्ति- उन्मूलनाय, लोककल्याणाय, आत्मकल्याणाय, वातावरण –
परिष्काराय, उज्ज्वलभविष्यकामनापूर्तये च प्रबलपुरुषार्थं करिष्ये,
अस्मै प्रयोजनाय च कलशादिआवाहितदेवता- पूजनपूर्वकम् गण्डान्त नक्षत्रजनित दोषोपसमानार्थं गण्डदोष मूलशान्ति कर्मसम्पादनार्थं सङ्कल्पं अहं करिष्ये।
पञ्चकलशों में पञ्चद्रव्यों के सहित पूजन करें।
मध्य कलश-
ॐ मही द्यौः पृथिवी च नऽ इमं यज्ञं मिमिक्षताम्।
पिपृतां नो भरिमभिः। -८.३२,१३.३२
पूर्व-
ॐ त्वं नोऽ अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेडो अव यासिसीष्ठाः।
यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषा*सि प्र मुमुग्ध्यस्मत्। -२१.३
दक्षिण-
ॐ स त्वं नो अग्नेवमो भवोती
नेदिष्ठो अस्याऽ उषसो व्युष्टौ।
अव यक्ष्व नो वरुण*रराणो वीहि मृडीक*सुहवो नऽ एधि। -२१.४
उत्तर-
ॐ इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृडय। त्वामवस्युरा चके।- २१.१
पश्चिम-
ॐ या वां कशा मधुमत्यश्विना सूनृतावती। तया यज्ञं मिमिक्षतम्।
उपयामगृहीतोस्यश्विभ्यां त्वैष ते योनिर्माध्वीभ्यां त्वा। -७.११
नमस्कार- दोनों हाथ जोड़ कर नमन- वन्दन करें।
ॐ नमस्ते सुरनाथाय, नमस्तुभ्यं शचीपते।
गृहाणं स्नानं मया दत्तं, गण्डदोषं प्रशान्तये॥
षोडशमातृका पूजन-
गौरी पद्मा शची मेधा, सावित्री विजया जया।
देवसेना स्वधा स्वाहा, मातरो लोकमातरः॥
धृतिः पुष्टिस्तथा तुष्टिः,आत्मनः कुलदेवता।
गणेशेनाधिका ह्येता, वृद्धौ पूज्याश्च षोडश॥
ॐ षोडशमातृकाभ्यो नमः। आ०स्था०,पू०
वास्तुपूजन- अनन्तं पुण्डरीकाक्षं, फणीशत विभूषितम्।
विद्युद्बन्धूक साकारं, कूर्मारूढं प्रपूजयेत्॥
नागपृष्ठं समारूढं, शूलहस्तं महाबलम् ।
पातालनायकम् देवं, वास्तुदेवं नमाम्यहम्॥
ॐ वास्तुपुरुषाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥
नागपूजनम्-
ॐ नमोऽस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथ्वीमनु। ये अन्तरिक्षे ये दिवि तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः।
वासुक्यादि अष्टकुल नागेभ्यो नमः॥आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥
चौंसठयोगिनीपूजनम्-
दिव्यकुण्डलसंकाशा, दिव्यज्वाला त्रिलोचना।
मूर्तिमती ह्यमूर्ता चे,
उग्रा चैवोग्ररूपिणी॥
अनेकभावासंयुक्ता, संसारार्णवतारिणी।
यज्ञे कुर्वन्तु निर्विघ्नं, श्रेयो यच्छन्तु मातरः॥
दिव्ययोगी महायोगी, सिद्धयोगी गणेश्वरी।
प्रेताशी डाकिनी काली, कालरात्री निशाचरी॥
हुङ्कारी सिद्धवेताली, खर्परी भूतगामिनी।
ऊर्ध्वकेशी विरूपाक्षी, शुष्काङ्गी धान्यभोजनी॥
फूत्कारी वीरभद्राक्षी, धूम्राक्षी कलहप्रिया।
रक्ता च घोररक्ताक्षी, विरूपाक्षी भयङ्करी॥
चौरिका मारिका चण्डी, वाराही मुण्डधारिणी।
भैरव चक्रिणी क्रोधा, दुर्मुखी प्रेतवासिनी॥
कालाक्षी मोहिनी चक्री, कङ्काली भुवनेश्वरी।
कुण्डला तालकौमारी, यमूदूती करालिनी॥
कौशिकी यक्षिणी यक्षी, कौमारी यन्त्रवाहिनी।
दुर्घटे विकटे घोरे, कपाले विषलङ्घने॥
चतुष्षष्टि समाख्याता, योगिन्यो हि वरप्रदाः।
त्रैलोक्ये पूजिता नित्यं, देवामानुष्योगिभिः॥ १०॥
ॐ चतुःषष्टियोगिनीभ्यो नमः॥ आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥
ब्रह्मापूजनम्-
ॐ ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि सीमतः सुरुचो वेनऽआवः।
सबुध्न्याऽउपमाअस्य विष्ठाःसतश्च योनिमसतश्च वि वः॥- १३.३
ॐ ब्रह्मणे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।
विष्णुपूजनम्-
ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्।
समूढमस्य पा * सुरे स्वाहा॥ ॐ विष्णवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। -५.१५
शिव पूजनम्-
ॐ नमस्ते रुद्र मन्यवऽ, उतो त ऽ इषवे नमः। बाहुभ्यामुत ते नमः।
ॐ रुद्राय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥- १६.१
नवग्रहपूजनम्-
सूर्य- ॐ जपाकुसुमसंकाशं, काश्यपेयं महाद्युतिम ।
तमोऽरिं सर्वपापघ्नं, प्रणतोऽस्मि दिवाकरम्॥
ॐ आदित्याय विद्महे, दिवाकराय धीमहि।
तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्। ॐ सूर्याय नमः।
चन्द्र-
ॐ दधिशङ्खतुषाराभं, क्षीरोदार्णवसम्भवम्।
नमामि शशिनं सोमं, शम्भोर्मुकुटभूषणम्॥
ॐ अत्रिपुत्राय विद्महे, सागरोद्भवाय धीमहि।
तन्नः चन्द्रः प्रचोदयात्। ॐ चन्द्राय नमः।
मङ्गल-
ॐ धरणीगर्भसम्भूतं, विद्युत्कान्तिसमप्रभम्॥
कुमारं शक्तिहस्तं च, मङ्गलं प्रणमाम्यहम्॥
ॐ क्षितिपुत्राय विद्महे, लोहिताङ्गाय धीमहि।
तन्नो भौमः प्रचोदयात्। ॐ भौमाय नमः।
बुध-
ॐ प्रियङ्गु कलिकाश्यामं, रूपेणाप्रतिमं बुधम्।
सौम्यं सौम्यगुणोपेतं, तं बुधं प्रणमाम्यहम्॥
ॐ चन्द्रपुत्राय विद्महे, रोहिणीप्रियाय धीमहि।
तन्नो बुधः प्रचोदयात्। ॐ बुधाय नमः।
गुरु- ॐ देवानां च ऋषीणां, च गुरुं काञ्चनसन्निभम्।
बुद्धिभूतं त्रिलोकेशं, तं नमामि बृहस्पतिम्॥
ॐ अङ्गिरोजाताय विद्महे, वाचस्पतये धीमहि।
तन्नो गुरुः प्रचोदयात्। ॐ बृहस्पतये नमः।
शुक्र-
ॐ हिमकुन्द मृणालाभं, दैत्यानां परमं गुरुम्।
सर्वशास्त्रप्रवक्तारं, भार्गवं प्रणमाम्यहम्॥
ॐ भृगुवंशजाताय विद्महे,
श्वेतवाहनाय धीमहि।
तन्नः कविः प्रचोदयात्।
ॐ शुक्राय नमः।
शनि- ॐ नीलाञ्जन समाभासं, रविपुत्रं यमाग्रजम्।
छायामार्त्तण्डसम्भूतं, तं नमामि शनैश्चरम्॥
ॐ कृष्णाङ्गाय विद्महे, रविपुत्राय धीमहि।
तन्नः शौरिः प्रचोदयात्। ॐ शनये नमः।
राहु- ॐ अर्धकायं महावीर्यं, चन्द्रादित्यविमर्दनम्।
सिंहिकागर्भसम्भूतं, तं राहुं प्रणमाम्यहम्॥
ॐ नीलवर्णाय विद्महे, सैंहिकेयाय धीमहि।
तन्नो राहुः प्रचोदयात्।
ॐ राहवे नमः।
केतु- ॐ पलाशपुष्पसङ्काशं, तारकाग्रहमस्तकम्।
रौद्रं रौद्रात्मकं घोरं, तं केतुं प्रणमाम्यहम्॥
ॐ अन्तर्वाताय विद्महे, कपोतवाहनाय धीमहि।
तन्नः केतुः प्रचोदयात्।
ॐ केतवे नमः।
।। पञ्चगव्यपूजन एवं सवत्सगोपूजनम्।।
गोदुग्धं गोमयक्षीरं, दधि सर्पिः कुशोदकम्।
निर्दिष्टं पञ्चगव्यं, पवित्रं मुनिः पुङ्गवैः॥
॥ नक्षत्र पूजन॥
जातक जिस नक्षत्र में जन्मा हो, उसी नक्षत्र के मन्त्र के साथ नक्षत्र पूजन करें।
1 अश्विनी-
ॐ या वां कशा मधुमत्यश्विना सूनृतावती।
तया यज्ञं मिमिक्षितम्॥ ॐ अश्विनीभ्यां नमः॥- २०.८०
2 आश्लेषा-
ॐ नमोऽस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथ्वीमनुयेऽन्तरिक्षे ये दिवितेभ्यः सर्पेभ्यो नमः।
ॐ सर्पेभ्यो नमः॥- १३.६
3 मघा-
ॐ पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधानमः पितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः
प्रपितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः। अक्षन् पितरोऽ मीमदन्त पितरोऽतीतृपन्त पितरः पितरः सुन्धध्वम्।
ॐ पितृभ्यो नमः॥- १९.३६
4 ज्येष्ठा-
ॐ सजोषाऽ इन्द्र सगणो मरुद्भिः सोमं पिब वृत्रहा शूर विद्वान्। जहि शत्रूँ२ऽ रप मृधोनुदस्वाथाभयं कृणुहि विश्वतो नः।
ॐ इन्द्राय नमः- ७.३७
5 मूल-
ॐ मातेव पुुत्रं पृथिवी पुरुषमग्नि* स्वे योनावभारुखा। तां विश्वै- र्देवैऋतुभिः संविदानः
प्रजापतिर्विश्वकर्मा वि मुञ्चतु।
ॐ नैऋतये नमः॥- १२.६१
6 रेवती-
ॐ पूषन् तव व्रतेवयंन रिष्येम कदा चन।
स्तोतारस्तऽ इह स्मसि। ॐ पूष्णे नमः॥- ३४.४१
सप्तधान्य पूजन-
ॐ अन्नपतेन्नस्य नो देह्यनमीवस्य शुष्मिणः।
प्रप्र दातारं तारिषऽ ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे। -११.८३
तत्पश्चात् सभी आवाहित देवताओं का षोडशोपचार विधि से पूजन पुरुषसूक्त (पृ० १८६-१९८) से करें।
।। पञ्चकलशों से सिञ्चन।।
पञ्चकलशों को पाँच सम्भ्रान्त व्यक्ति (महिला- पुरुष) ले लें तथा निम्न मंत्र के साथ जातक और उनके माता- पिता का सिञ्चन अभिषेक करें।
ॐ आपो हि ष्ठा मयोभुवः तानऽ ऊर्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे।
ॐ यो वः शिवतमो रसः तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः।
ॐ तस्माऽ अरंगमाम वो यस्यक्षयाय जिन्वथ। आपो जनयथा च नः।
तत्पश्चात् यज्ञ का क्रम पूर्ण करें। गायत्री मन्त्र की २४ आहुतियाँ एवंं महामृत्युञ्जय मन्त्र से ५ आहुति दें, फिर विशेष आहुतियाँ समर्पित करें।
विशेष आहुति
नक्षत्र मन्त्राहुति-
ॐ नमस्ते सुरनाथाय नमस्तुभ्यं शचीपते।
गृहाणामाहुति मया दत्तं गण्डदोषप्रशान्तये, स्वाहा॥
इदं इन्द्राय इदं न मम। (तीन बार)
नवग्रह मन्त्राहुति
१ सूर्य गायत्री-
ॐ आदित्याय विद्महे, दिवाकराय धीमहि।
तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं सूर्याय, इदं न मम।
२ चन्द गायत्री- ॐ अत्रिपुत्राय विद्महे सागरोद्भवाय धीमहि।
तन्नः चन्द्रः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं चन्द्राय, इदं न मम।
३ मङ्गल गायत्री-
ॐ क्षितिपुत्राय विद्महे लोहिताङ्गाय धीमहि।
तन्नो भौमः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं भौमाय, इदं न मम।
४ बुध गायत्री-
ॐ चन्द्रपुत्राय विद्महे रोहिणीप्रियाय धीमहि।
तन्नो बुधः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं बुधाय, इदं न मम।
५ गुरु गायत्री-
ॐ अङ्गिरोजाताय विद्महे वाचस्पतये धीमहि।
तन्नो गुरुः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं बृहस्पतये, इदं न मम।
६ शुक्र गायत्री-
ॐ भृगुवंशजाताय विद्महे श्वेतवाहनाय धीमहि।
तन्नः कविः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं शुक्राय, इदं न मम।
७ शनि गायत्री-
ॐ कृष्णांगाय विद्महे रविपुत्राय धीमहि।
तन्नः शौरिः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं शनये, इदं न मम।
८ राहु गायत्री-
ॐ नीलवर्णाय विद्महे सैंहिकेयाय धीमहि।
तन्नो राहुः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं राहवे, इदं न मम।
९ केतु गायत्री- ॐ अन्तर्वाताय विद्महे
कपोतवाहनाय धीमहि।
तन्नः केतुः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं केतवे, इदं न मम।
तत्पश्चात् यज्ञ का शेष क्रम स्विष्टकृत्, पूर्णाहुति आदि सम्पन्न करें। उपस्थित सभी परिजन अभिषेक मन्त्र के साथ जातक और उनके माता- पिता को आशीर्वाद दें। कार्यक्रम समाप्त।