महंगे चढ़ावों से नहीं, भगवान तो भाव से प्रसन्न होते हैं
यदि आप कभी किसी पवित्र मंदिर में गए हैं, तो आपने देखा होगा कि लोग अपने दान और प्रसाद को बहुत गर्व के साथ बताते हैं। ऐसा लगता है जैसे कि उनकी भेंट कोई रिश्वत है जो उन्हें भगवान के साथ मिलाने का वादा करती है। जैसे कि प्रसाद जितना मोटा होगा, उनकी भक्ति उतनी ही बेहतर होगी। तो सवाल है कि कितना और क्या बेहतर है और क्या यह उस तक पहुंचता है?
भगवद्गीता के अध्याय 16, श्लोक 21 में भगवान कृष्ण कहते हैं, ‘पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति। तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।’ यानी यदि कोई भक्तिपूर्वक मुझे एक पत्ता, एक फूल, एक फल या यहां तक कि जल भी अर्पित करता है, तो मैं शुद्ध चेतना में अपने भक्त द्वारा प्रेमपूर्वक अर्पित किए गए उस उपहार को आनंदपूर्वक स्वीकार करता हूं। भगवान कृष्ण कहते हैं कि प्रेम से दिया गया कोई भी दान भगवान खुशी-खुशी स्वीकार करते हैं। सुदामा की दूसरी बार भेंट कृष्ण के प्रति प्रेम से भरी हुई थी। भगवान कृष्ण ने कोई हैसियत या गरीबी नहीं देखी। उन्होंने जो देखा, वह सुदामा का हृदय था।
भगवान कृष्ण और ब्रजवासियों की और भी दिलचस्प कहानी है। ब्रजवासी अपने गोविंदा को प्यार से तैयार की गई मिठाइयां खिलाना चाहते थे, लेकिन उनके और कृष्ण के बीच एक नदी बाधा थी। यहां एक व्यास उनकी मिठाई खा जाते हैं। जैसे ही वह मिठाई खाते हैं, ब्रजवासी चिंता और क्रोध में पड़ जाते हैं कि अब उनका चढ़ावा उनके आराध्य को कैसे चढ़ाया जाएगा। तब व्यास कहते हैं, ‘अगर मैंने मिठाई का एक टुकड़ा भी खाया है, तो नदी इन्हें रास्ता न दे।’ पर नदी दो भागों में बंट कर ब्रजवासियों को उस पार जाने का रास्ता दे देती है। जिस क्षण वह अपने भगवान के पास पहुंचते हैं, कृष्ण कहते हैं, मेरा पेट भरा हुआ है, कुछ क्षण पहले ही मैंने मिठाइयां खाई थीं। यह सुनकर ब्रजवासियों को एहसास होता है कि किसी भूखे को दिया गया भोजन कृष्ण को खिलाने के बराबर है।
हम सब परमात्मा को अपना प्रसाद चढ़ाते हैं। कोई कुछ बड़ा चढ़ा देता है, तो उसके बारे में गाता फिरता है। वहीं, हममें से कुछ भगवान को इसलिए कुछ चढ़ाते हैं, ताकि हमें बदले में फायदा हो। हम, हमारी भेंट के इस भाव में अपने अहं को भी शामिल कर लेते हैं, लेकिन भगवान को हमारी भेंट के भौतिक मूल्य से कुछ लेना-देना नहीं है। वह हमेशा प्यार और भक्ति की तलाश में रहते हैं। भेंट के बहाने वह हमें धर्म के साथ जोड़े रखने में मदद करते हैं। यह मायने नहीं रखता कि हम क्या चढ़ाते हैं। हममें से प्रत्येक अपने स्वभाव, अपनी क्षमता और अपनी शर्तों के आधार पर भेंट चढ़ाता है। अगर हम अपने सभी विचारों और कर्मों के साथ खुद को उनके प्रति कृतज्ञता से अर्पित करते हैं, तो भगवान यह देखकर बहुत खुश होते हैं।
अपने अहं को संतुष्ट करने के लिए भेंट चढ़ाने वालों पर ध्यान मत दीजिए। वे जो करते हैं, वह उनके और उनके भगवान के बीच होता है। और हम जो करते हैं वह हमारे और हमारे भगवान के बीच होता है। परमात्मा के साथ अपने संबंध को एक व्यक्तिगत मिलन बनने दें। तो अगली बार जब आप परमात्मा को भेंट चढ़ाएं, तब यह न सोचें कि आपके बटुए में क्या है, बल्कि यह सोचें कि आपके दिल में क्या है!
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