Self-reliance is the truth of the Gita, which inspires us to think and act after thinking on our own.
स्वावलंबन है गीता का सत्य, जो हमें स्वयं सोच-विचार कर कर्म करने के लिए करता है प्रेरित
सत्य विरोधाभासी है। किसी भी वस्तु को हम अलग-अलग कोण से देखते हैं, तो वह हर कोण पर हमें भिन्न दिखती है, जब हम उसे समग्रता में देखते हैं, तभी उस वस्तु का सत्य उद्घाटित होता है। चूंकि श्रीमद्भगवद्गीता सत्य का उद्घाटन करती है, इसलिए वह भी विरोधाभासी प्रतीत हो सकती है। लेकिन इसका मर्म आप तभी समझ सकते हैं, जब आप इसे समग्रता में देखें। एक बिंदु पर कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि कर्म सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और कर्म किए बिना कोई भी लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकता। बाद में वे उनसे कहते हैं कि कर्म श्रेष्ठ है, लेकिन ज्ञान श्रेष्ठतम है।
आगे जाकर कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, ‘बुद्धिमान वही है, जो ‘कर्म’ में ‘अकर्म’ और ‘अकर्म’ में ‘कर्म’ को देखता है।’ इसका अर्थ क्या है? इसका अर्थ है, भले ही आपने कुछ न किया हो, फिर भी ‘कुछ नहीं’ करके भी आप कुछ कर रहे हैं। यदि आप कुछ करते हैं तो भी आपने कुछ नहीं किया है, क्योंकि ‘कुछ और भी हो सकता था’ या ‘आप कुछ और कर सकते थे’। भले ही आपने कर्म किया हो, लेकिन यह अकर्म है; क्योंकि आपने यही किया, आप कुछ और नहीं कर सके। इसलिए प्रत्येक ‘क्रिया’ में एक ‘निष्क्रियता’ होती है और प्रत्येक ‘निष्क्रियता’ से एक ‘क्रिया’ जुड़ी होती है।
तत्पश्चात कृष्ण अर्जुन को ध्यान योग अथवा ध्यान की ओर ले जाते हैं। भगवद्गीता के छठे अध्याय में उन्होंने अर्जुन से कहा, चूंकि वह भ्रमित हैं, इसलिए वार्ता करने का कोई लाभ नहीं है। वह उन्हें ध्यान करने के लिए कहते हैं। अंत में, कृष्ण कहते हैं, ‘अर्जुन, योगियों में वह सबसे महान है, जो मुझे अपने हृदय में रखता है, चाहे वह ध्यान करे या न करे। वह वास्तविक योगी है, क्योंकि वह जो कुछ भी कर रहा है, उसमें मैं उसके साथ हूं।’
अंतर्विरोध यहीं खत्म नहीं होते। एक समय पर, कृष्ण कहते हैं, ‘अर्जुन, मुझे कोई प्रिय नहीं है, ऐसा कोई भी नहीं है जिसे मैं प्रेम करता हूं।’ और फिर उन लोगों के लिए योग्यता की एक पूरी सूची देते हैं, जिन्हें वे वास्तव में प्रेम करते हैं! एक अन्य उदाहरण में, कृष्ण अर्जुन को कर्म के फल की कामना किए बिना कर्म करने के लिए कहते हैं। बाद में वे अर्जुन को प्रकृति के नियम के अनुसार ठीक से कार्य करने के लिए कहते हैं। फिर वह उन्हें बताते हैं कि यदि वह युद्ध जीतना चाहते हैं तो उन्हें कैसे लडऩा चाहिए। इसलिए अब वह अर्जुन का ध्यान कर्म के फल की ओर ले जा रहे हैं, लेकिन फिर वह उन्हें कर्म के फल की चिंता न करने के लिए भी कहते हैं।
कृष्ण अर्जुन के प्रिय मित्र के समान थे। श्रीमद्भागवत में आप देखेंगे कि विदुर और उद्धव को छोड़कर और कोई भी नहीं मानता था कि कृष्ण पूर्ण प्रबुद्ध हैं। वे सब उन्हें एक चतुर और कुशल व्यक्ति ही मानते थे। निस्संदेह पांडव और गोपियां थीं, जो जानती थीं कि कृष्ण कौन थे और वे सभी दृष्टिकोणों से कितने संपूर्ण थे। लेकिन उनमें से बहुतों ने, जिनमें अर्जुन भी शामिल हंै, उन्हें इस तरह नहीं देखा। लेकिन कृष्ण उन्हें एक क्षण में दिखाते हैं कि वह अनंत हैं। वे अर्जुन से कहते हैं, ‘तुम ज्ञान चक्षु के बिना मुझे नहीं देख सकते, अत: अब मैं तुम्हें ज्ञान की एक दिव्य दृष्टि दूंगा, जो मैंने युगों से किसी को प्रदान नहीं की। मैं तुम्हें अभी दे रहा हूं, क्योंकि यह समय इसके लिए उपयुक्त है।’ इसके साथ वह उन्हें एक दृष्टि, एक प्रकाश प्रदान करते हैं। उस एक क्षण में अर्जुन को संपूर्ण ब्रह्मांड कृष्ण के रूप में प्रतीत होता है।
अर्जुन का मन उसी क्षण टूटकर बिखर जाता है। वह देखता है कि सारी सृष्टि, सब कुछ पर्वत और नदियां, भूत, वर्तमान और भविष्य – कृष्ण में विलीन हो रहे हैं। वह देखते हैं कि कृष्ण ही वह अनंत स्रोत हैं, जिसमें से सब कुछ आ रहा है और विलीन हो रहा है। एक पल के लिए उनका सारा जीवन, सारा ब्रह्मांड, सारी स्मृतियां और उससे जुड़ी हर वस्तु एक चलचित्र की तरह गतिमान होती हैं और यह अर्जुन को भयभीत करता है। तब अर्जुन याचना करते हैं, ‘हे कृष्ण! कृपया मुझे अपना सरल, स्वाभाविक और मैत्रीपूर्ण रूप दिखाएं। मुझे आपकी सहज मुस्कान पसंद है और मैं अपने मित्र को देखना चाहता हूं। मैं इसके आगे कुछ नहीं देखना चाहता। यह मेरे लिए बहुत अधिक है।’ इसे सार्वभौमिक दृश्य या विश्व रूप दर्शन कहा जाता है।
इसके बाद, कृष्ण अर्जुन को यज्ञों और उन सभी सिद्धांतों व नियमों के विषय में बताते हैं, जिनके अंतर्गत समाज और ब्रह्मांड काम करता है। पुन: वे संन्यास के विषय में और वास्तव में केंद्रित कैसे हों, इस पर वार्ता करते हैं। उदाहरण के लिए, किसी घटना या किसी बात को केवल उसी के रूप में देखा जाना चाहिए। एक घटना अथवा एक संयोग। लेकिन मन इससे जुड़ जाता है और आप इससे मुक्ति पाने का प्रयत्न करते हैं। घटना महत्वपूर्ण हो जाती है और मन उसी में फंस जाता है – ‘ओह! उन्होंने यह कहा, उन्होंने यह नहीं कहा, आदि।’ किसी घटना के अंत पर आपको अति राहत की अनुभूति होती है। आप अपने भीतर अचानक शांति का अनुभव करते हैं। शांति आपका मूल स्वभाव है। जब आप अपने केंद्र में होते हैं, आप शांत होते हैं। जैसे ही मन की हलचल समाप्त होती है, आप शांति को महसूस कर सकते हैं। मस्तिष्क की सभी कोशिकाएं और पूरा मस्तिष्क पूरी तरह शांत हो जाता है। जिस क्षण भीतर से कोलाहल मिटता है, आप वास्तव में भीतर गहराई में शांति के मूर्त रूप में मुस्कुरा सकते हैं।
अर्जुन कृष्ण से पूछते हैं, ‘आप जो कहते हैं, वह बहुत आश्चर्यजनक और आनंददायक है, लेकिन यह सरल नहीं है। इस मन को नियंत्रित करना कठिन है। यह हवा को नियंत्रित करने जैसा है। क्या कोई हवा को नियंत्रित कर सकता है?’ तब कृष्ण कहते हैं, ‘मैं तुमसे सहमत हूं। यह कठिन है, लेकिन असंभव नहीं। अभ्यासेन तुकौन्तेय – अभ्यास, वैराग्य और पुन: अपने केंद्र में लौटने से तुम इसमें सफल होगे।’
आप देखेंगे कि कृष्ण ने सब कुछ आजमाया। अंत में यह विश्व रूप का दर्शन था, जिसने अर्जुन को प्रभावित किया; किंतु केवल दर्शन से भी लोग नहीं बदल सकते। वास्तव में कृष्ण बोध को पूरी तरह से बाहर से नहीं लाते हैं, इसके लिए कुछ और चाहिए। यही कारण है कि जब कृष्ण ने अर्जुन को अनंत दर्शन की ओर अग्रसर किया, तब वह भक्ति के विषय में बताते हैं और वह अन्य सभी विषयों पर आते हैं, सृजन के बारे में और यहां तक कि भोजन के बारे में भी। किंतु जब अर्जुन कहते हैं, ‘मैं समर्पण करता हूं, तब कृष्ण कहते हैं, ‘मैं कुछ नहीं कर सकता; तुम स्वयं सोच-विचार कर निर्णय लो और वही करो जो तुम्हारे लिए सबसे अच्छा है। मैंने जो कुछ कहा है, उस पर पहले विचार करो और फिर कर्म करो।, अर्जुन कहते हैं, ‘अब मेरे मन में पूर्ण स्पष्टता है। आप जो कहेंगे मैं वह करूंगा।, इस प्रकार अर्जुन को उस लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए कृष्ण को 18 अध्याय बोलने पड़े। कृष्ण इसे पहले अध्याय में ही कर सकते थे, लेकिन जिस तरह से यह ज्ञान प्रकट हुआ है, वह सुंदर है। सभी पक्षों से देखे जाने पर सब कुछ विरोधाभासी प्रतीत हो सकता है, किंतु वास्तव में यही सत्य है।