अहिंसा सत्य अस्तेय श्लोक मराठी अर्थ
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, असंग्रह
शरीर श्रम, अस्वाद, सर्वत्र भय वर्जनं,
सर्वधर्म समानत्वं, स्वदेशी, स्पर्श भावना ।
अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा: यमा:। ( योगसूत्र 2/30)
अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच यम है
“अहिंसा’ का मतलब है- किसी भी समय किसी भी प्राणी या
जीव की हिंसा (हत्या या कष्ट) नहीं करनी चाहिए न केवल प्राणियों
की हत्या का त्याग करना चाहिए बल्कि प्राणियों के प्रति किसी भौ
प्रकार की क्रूरता, कठोरता और निर्दयता का त्याग कर देना चाहिए
योग दर्शन हिंसावृत्ति को मानव की सभी बुराइयों का आधार या मूल
कारण मानता है। इसीलिए योग दर्शन में अहिंसा के पालन पर काफी
बल दिया गया है।
“सत्य’ का मतलब है- मिथ्या, झूठे या असत्य वचनों का परित्याग
कर देना। योग दर्शन के अनुसार- मनुष्य को सदैव ही ऐसे वचनों का
प्रयोग करना चाहिए जिससे कि सभी प्राणियों का हित हो जाए। यदि
किसी वचन से किसी प्राणी का किसी भी तरह अहित हो रहा हो तो
उस वचन को त्याग देना चाहिए। जिस प्रकार आदमी सुने, देखे और
अनुमान करे, उसी प्रकार उसे मन का नियंन्त्रण करना चाहिए।
“अस्तेय’ का अर्थ होता है- किसी दूसरे के या पराए धन को चुराने
या धन का अपहरण करने की प्रवृत्ति का त्याग करना। जब किसी अन्य
व्यक्ति की सम्पत्ति पर गलत तरीके से अपना हक जमाया जाता है तो
इस प्रकार के अपराध को “स्तेय’ कहते है। ‘स्तेय’ मनोवृत्ति का त्याग
ही अस्तेय है।
‘ब्रह्मचर्य’ योगदर्शन का चौथा यम है। इसका मतलब है कि जो
प्रवृत्ति हमको विषय वासना या काम वासना की ओर झुकाती है, उसका
परित्याग कर देना चाहिए ब्रह्मचर्य में कामेच्छा से सम्बन्चित इन्ट्रियों के
संयम का आदेश योग दर्शन में दिया गया है।
“अपरिग्रह का अर्थ है- लोभ के कारण इकट्टी की गयी अनावश्यक
उस्तु का त्याग करना। अधिक धन और सुख-सुविधाएँ जीवन में
विलासिता ला सकती है। उनका अर्जन, संग्रह, संरक्षण और क्षय सब के
सब दु:ख या अशान्ति कारक है। अतः परिग्रह दोष का परित्याग और
अपरिग्रह को स्वीकार करना साधना में आवश्यक है
योग दर्शन के अनुसार जो मानव अपने मन को सब और से योग
में सुस्थिर बनाना चाहता है, उसको इन पाँच प्रकार के यम का पालन
अवश्य करना चाहिए) इन यमों का पालन करने से व्यक्ति बुरी प्रवृत्तियों
को अपने वश में करने में सफल हो जाता है। वह निश्चित-निर्विष्त और
सफलतापूर्वक योग मार्ग पर आगे कदम बढाता रहता है।
नियम- योग दर्शन में “नियम’ को योग साधना का दूसरा महत्त्वपूर्ण अद्भ
माना गया है। ‘नियम’ का मतलब और कुछ नहीं बल्कि सदाचार और
सद्विचारों को प्रश्नय (प्रोत्साहन) देना ही है। योग दर्शन में पाँच प्रकार
के नियमों के पालन की बात कही गयी है-
‘शौचसंतोषतप:स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः। ( योगसूत्र 2/32)
, अर्थात् शौच (पवित्रता) , संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश््वरप्रणिधान ये
पाँच नियम कहलाते है।
“शौच’ अष्टाडू’ योग में सर्वप्रथम नियम शौच है। शौच का अर्थ है-
पवित्रता। स्नानादि के द्वारा केवल बाह्य पवित्रता ही यहाँ अपेक्षित नहीं
है अपितु आन्तरिक पवित्रता भी अपेक्षित है। इसलिए व्यास ने योगसूत्र-
भाष्य में मिट्टी, जल आदि के द्वारा तथा पवित्र आहार के द्वारा बाह्य
शुद्धि तथा चित्तमलों के नाश के द्वारा आन्तरिक शुद्धि मानी है-
अहिंसा सत्य अस्तेय श्लोक मराठी अर्थ