फटी पुस्तक की आत्मकथा(Hindi Nibandh Fati Pustak Ki Atmakatha)
मैं एक फटी पुस्तक हूँ। मेरा जन्म कागज़ की एक फैक्ट्री में हुआ था। वहाँ मुझे अन्य कई पुस्तकों के साथ बाँधकर एक-एक पख़्ते में रखा गया था। मुझे बहुत प्यार से बनाया गया था। मेरे कवर पर सुंदर चित्र बने थे और मेरी पहचान के लिए एक नाम भी था।
एक दिन मुझे एक किताब की दुकान में लाया गया। वहाँ एक बड़े लड़के ने मुझे खरीदा। उसने मुझे बहुत प्यार से अपने घर ले आया। उसने मुझे अपने बैग में रखकर स्कूल ले गया। वहाँ उसने मुझे अपने दोस्तों को दिखाया। उन लोगों ने मेरी बहुत प्रशंसा की। वह मुझे पाकर बहुत खुश था। वह प्रतिदिन मेरे पन्नों पर लिखकर पढ़ता था और मुझे अपने साथ रखता था।
इस प्रकार कई साल बीते। वह बड़ा हो गया और मैं पुरानी हो गई। धीरे-धीरे मेरे पन्ने पीले और कमज़ोर हो गए। मेरे कागज़ के किनारे फटने लगे और कई पन्ने निकल गए। इसलिए उसने मुझे अलमारी में एक जगह रख दिया। अब मैं फटी हुई हूँ और यहीं रहती हूँ। वह कभी-कभी मुझे देखने आता है और मुझे देखकर बहुत खुश होता है।
मैं बहुत दुखी हूँ कि मैं अब अच्छी तरह से पढ़ी नहीं जा सकती। मैं चाहती हूँ कि मैं फिर से नई हो जाऊँ और लोगों को ज्ञान प्रदान कर सकूं। लेकिन मैं जानती हूँ कि यह संभव नहीं है।
मैं लोगों से अपील करती हूँ कि वे पुस्तकों का सम्मान करें। उन्हें सावधानी से संभालें और उन्हें फाड़ें या खो न दें। पुस्तकें ज्ञान के भंडार हैं और हमें उनका सदुपयोग करना चाहिए।
यह आत्मकथा एक फटी पुस्तक की कहानी है। यह पुस्तक एक समय बहुत प्यारी और सम्मानित थी। लेकिन समय के साथ यह पुरानी और फटी हो गई। अब यह अलमारी में एक कोने में पड़ी है। यह पुस्तक लोगों से अपील करती है कि वे पुस्तकों का सम्मान करें और उनका सदुपयोग करें।