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सर्वतोभद्र मंडल चित्र – Sarvatobhadra Chakra

Sarvatobhadra Mandal is made prominently along with various Mandals in auspicious works like Yagya Yagadic Karma, Manglik Puja festivals, Pratishtha Karma, etc.

Usefulness in Yagya and Manglik works: Sarvatobhadra Mandal is made prominently along with various Mandals in auspicious works like Yagya Yagadic Karma, Manglik Puja festivals, Pratishtha Karma, etc. With the establishment of the Mandal, the above mentioned deities are established and worshiped with Vedic mantras. This brings all round welfare and prosperity to the seeker, worshiper and worshipper. In the scriptures like Bhadra Martandadi, Sarvatobhadra Mandal has prominence which is used for all the gods. Sarvatobhadra Mandal is the gate of the gods, hence it has been called Devdwar. From ancient times till today, Ganesh Yagya, Lakshmi Yagya, Yadra Yagya, Surya Yagya, Graha Shanti Karma, Putreshti Yagya, Shatrunjay Yagya, Gayatri Yagya, Shrimad Bhagwat Mahayagya, Chandi, Navchandi, Shatchandi, Sahasra Chandi, Lakshandi, Ayut Chandi, Kotichandi etc. The feeling of welfare of all is hidden behind the prominent use of Bhadra Mandal in India, that is why it is called Bhadra Mandal. In Sanatan culture, sixteen rituals from birth till death start with Yagya and end with Yagya only. Therefore, the Yagya ritual is incomplete without Bhadra Mandal. There is great glory of Yagya in the land of India, that is why it is called the best deed – Yagyovai Shresthakarma. Living beings originate from food and food is produced due to timely rain. Occasional rain is caused by Yagya. Yajnakarma is done by performing the rituals prescribed in the scriptures by the host and the Acharya and the gods like Bhadramandal are its main basis. Bhadramandal is used in Yagya rituals along with the worship of a particular deity for the welfare of the host.

श्रीनाथ मंदिर में सुदर्शन चक्र, जगन्नाथपुरी में भैरवी, तिरूपति बालाजी एवं शृंगेरी में श्रीयंत्र तथा महाकालेश्वर उज्जैन में महामृत्युंजय यंत्र का प्रभाव एवं चमत्कार श्रद्धालुओं को सर्वविदित है। मंडल एवं यंत्र को देव द्वार भी कहा जाता है। सर्वतोभद्र मंडल मंगलप्रद एवं कल्याणकारी माना जाता है। यज्ञ यागादिक, देव प्रतिष्ठा, मांगलिक पूजा महोत्सव, अनुष्ठान इत्यादि देव कार्यों में सर्वतोभद्र मंडल का सर्वविध उपयोग किया जाता है। गणेश, अम्बिका, कलश, मातृका, वास्तु मंडल, योगिनी, क्षेत्रपाल, नवग्रह मंडल, वारुण मंडल आदि के साथ प्रमुखता से सर्वतोभद्र मंडल के मध्य प्रमुख देवता को स्थापित एवं प्रतिष्ठित कर उनकी विभिन्न पूजा उपचारों से पूजा करने का विधान धर्म ग्रंथों में उपलब्ध है। सर्वतोभद्र मंडल के सामान्यतः कई अर्थ प्राप्त होते हैं। मंगलप्रद एवं कल्याणकारी सर्वतोभद्र मंडल एवं चक्र में सभी ओर ‘भद्र’ नामक कोष्ठक समूह होते हैं जो सर्वतोभद्र मंडल अथवा चक्र के नाम से जाने जाते हैं। इस मंडल में प्रत्येक दिशा में दो-दो भद्र बने होते हैं इस प्रकार यह मंगलकारी विग्रह अपने नाम को सर्वथा सार्थक करता है। संरचना: सर्वतोभद्र मंडल की रचना अद्भुत है।
सर्वप्रथम मंडल निर्माण हेतु एक चैकोर रेखाकृति बनायी जाती है। इस चैकोर रेखा में दक्षिण से उत्तर तथा पश्चिम से पूर्व की ओर बराबर-बराबर दो रेखाएं खींचने का विधान है। इस प्रकार सर्वतोभद्र मंडल में 19 खड़ी एवं 19 आड़ी लाइनों से कुल मिलाकर 324 चैकोर बनते हैं। इनमें 12 खण्डेन्दु (सफेद), 20 कृष्ण शृंखला (काली), 88 वल्ली (हरे), 72 भद्र (लाल), 96 वापी (सफेद), 20 परिधि (पीला) तथा 16 मध्य (लाल) के कोष्ठक होते हैं। इन कोष्ठकों में इन्द्रादि देवताओं, मातृशक्तियों तथा अरुन्धति सहित सप्तऋषि आदि का स्थापन एवं पूजन किया जाता है। भद्र मंडल के बाहर तीन परिधियां होती हैं जिनमें सफेद सप्तगुण की, लाल रजो गुण की और काली तमो गुण की प्रतीक है जो भगवान की प्रसन्नता हेतु निर्मित की जाती हैं। खण्डेन्दु: तीन-तीन कोष्ठकों का एक-एक खण्डेन्दु चारों कोनों पर बनाया जाता है।

पूरे भद्र मंडल में खण्डेन्दु में 12 कोष्ठक होते हैं। ईशान कोण से प्रारंभ कर प्रत्येक कोण में तीन-तीन कोष्ठकों का एक-एक खण्डेन्दु बनाया जाता है, जिसमें सफेद रंग की आकृति देने हेतु चावल का प्रयोग किया जाता है। कृष्ण शृंखला: पांच-पांच कोष्ठकों की एक-एक कृष्ण श्रृंखला में कुल 20 कोष्ठक होते हैं। वल्ली: खण्डेन्दु के बगल वाले कोष्ठक के नीचे दो कोष्ठकों में हरे रंग का प्रयोग किया जाता है। कृष्ण शृंखला के दायीं एवं बायीं (ग्यारह-ग्यारह) ओर चारों कोनों में कुल 88 वल्लियां तैयार की जाती हैं। भद्र: वल्ली से सटे चारों कोनों एवं आठों दिशाओं में नौ-नौ कोष्ठकों का एक-एक भद्र होता है जो लाल रंग के धान्य से भरा जाता है। आठ भद्रों में कुल 72 कोष्ठक बनाये जाते हैं। वापी: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण चारों दिशाओं में 24-24 कोष्ठकों की एक-एक वापी तैयार कर उसमें सफेद रंग के धान्य का प्रयोग किया जाता है। चार वापियों में 96 कोष्ठक होते हैं। मध्य: भद्र मण्डल के शेष बचे 16 कोष्ठकों को मध्य कहा जाता है जिसका वास्तुशास्त्रीय महत्व है। मध्य में कर्णिकायुक्त अष्टदल कमल बनाया जाता है जिसमें लाल रंग के धान्य का प्रयोग किया जाता है। इसी अष्टदल कमल में यज्ञ कर्म के प्रधान देवता की स्थापना कर उनकी विविध पूजा उपचारों से पूजा-अर्चना की जाती है।

परिधि: परिधि में 20 कोष्ठक होते हैं। बाह्य परिधि: बाह्य परिधि में 3 परिधियां सत्व, रजो और तमो गुण की होती हैं।

सर्वतोभद्रमंडल के देवता: सर्वतोभद्रमंडल के 324 कोष्ठकों में निम्नलिखित 57 देवताओं की स्थापना की जाती है:

  1. ब्रह्मा
  2. सोम
  3. ईशान
  4. इन्द्र
  5. अग्नि
  6. यम
  7. निर्ऋति
  8. वरुण
  9. वायु
  10. अष्टवसु
  11. एकादश रुद्र
  12. द्वादश आदित्य
  13. अश्विद्वय
  14. सपैतृक-विश्वेदेव
  15. सप्तयक्ष- मणिभद्र, सिद्धार्थ, सूर्यतेजा, सुमना, नन्दन, मणिमन्त और चन्द्रप्रभ। ये सभी देवता यजमान का कल्याण करने वाले बताये गये हैं।
  16. अष्टकुलनाग
  1. गन्धर्वाप्सरस – गन्धर्व $ अप्सरा देवता की एक जाति का नाम गंधर्व है। दक्ष सूता प्राधा ने प्रजापति कश्यप के द्वारा अग्रलिखित दस देव गंधर्व को उत्पन्न किया था- सिद्ध, पूर्ण, बर्हि, पूर्णायु, ब्रह्मचारी, रतिगुण, सुपर्ण, विश्वावसु, भानु और सुचन्द्र। अप्सरा- कुछ अप्सरायें समुद्र मंथन के अवसर पर जल से निकली थीं। जल से निकलने के कारण इन्हें अप्सरा कहा जाता है एवं कुछ अप्सरायें कश्यप प्रजापति की पत्नी प्रधा से उत्पन्न हुई हैं। अलम्बुशा, मिश्रकेशी, विद्युत्पर्णा, तिलोत्तमा, अरुणा, रक्षिता, रम्भा, मनोरमा, केशिनी, सुबाहु, सुरता, सुरजा और सुप्रिया हैं।
  2. स्कंद
  3. नन्दी

20 शूल

  1. महाकाल – ये सभी देवताओं में श्रेष्ठ महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के रूप में स्वयंभू रूप से अवतीर्ण हैं।
  2. दक्षादि सप्तगण – भगवान शंकर के मुख्य गण कीर्तिमुख, श्रृंगी, भृंगी, रिटि, बाण तथा चण्डीश ये सात मुख्य गण हैं।
  3. दुर्गा
  4. विष्णु
  5. स्वधा
  6. मृत्यु रोग
  7. गणपति
  8. अप्
  9. मरुदगण

30 पृथ्वी

  1. गंगादि नंदी- यज्ञ यागादिक कर्म में देव कर्म प्राप्ति की योग्यता प्राप्त करने हेतु शुद्धता एवं पवित्रता हेतु गंगादि नदियों का आवाहन किया जाता है। सप्तगंगा में प्रमुख हैं- गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु और कावेरी।
  2. सप्तसागर
  3. मेरु
  4. गदा
  5. त्रिशूल
  6. वज्र
  7. शक्ति
  8. दण्ड
  9. खड्ग
  10. पाश
  11. अंकुश- ये अष्ट आयुष देव स्वरूप है और मानव के कल्याण के लिए विविध देवताओं के हाथों में आयुध के रूप में सुशोभित होते हैं। उत्तर, ईशान, पूर्व आदि आठ दिशाओं के सोम, ईशान, इन्द्रादि अधिष्ठाता देव हैं ये अष्ट आयुध।
  1. गौतम
  2. भारद्वाज
  3. विश्वामित्र
  4. कश्यप
  5. जमदग्नि
  6. वसिष्ठ
  7. अत्रि – ये सात ऋषि हैं। भद्रमंडल में मातृकाओं की तरह इन ऋषियों की भी पूजा होती है।
  8. अरुन्धती- महाशक्ति अरुन्धती सौम्य स्वरूपा होकर वंदनीया है। पहले ये ब्रह्मा की मानस पुत्री थीं। सोलह संस्कारों में प्रमुख विवाह के अवसर पर कन्याओं को इनका दर्शन कराया जाता है।
  9. ऐन्द्री
  10. कौमारी
  11. ब्राह्मी
  12. वाराही
  13. चामुण्डा
  14. वैष्णवी
  15. माहेश्वरी तथा
  16. वैनायकी – देवस्थान, यज्ञभाग की रक्षा हेतु अष्ट मातृकाओं का प्रार्दुभाव हुआ। भद्र मंडल परिधि में इन माताओं की स्थापना का विधान है।

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