In this way man can attain peace along with the divine element.
इस तरह मनुष्य परमात्म तत्व के साथ-साथ शांति को भी कर सकता है प्राप्त
हम देखते हैं कि कुछ लोग उपासना में जो करते हैं, दैनिक व्यवहार में उनकी वह भक्ति दिखाई नहीं देती। वह कहते तो हैं कि भगवान सर्वव्यापक है, सबके अंदर उनकी आत्मा है, लेकिन तब भी वह दूसरों के साथ दुश्मनी या भेदभाव रखते हुए व्यवहार और कार्य करते हैं। श्रीमद्भागवत महापुराण में कपिल भगवान भक्ति का मर्म बताते हुए कहते हैं, ‘मैं सबका आत्मा, परमेश्वर सभी भूतों में स्थित हूं। ऐसी दशा में जो मोहवश मेरी उपेक्षा करके केवल प्रतिमा के पूजन में ही लगा रहता है, वह तो मानो भस्म में ही हवन करता है। जो भेद दर्शी और अभिमानी पुरुष दूसरे जीवों के साथ बैर बांधता है और इस प्रकार उनके शरीरों में विद्यमान मुझ आत्मा से ही द्वेष करता है, उसके मन को कभी शांति नहीं मिल सकती। मनुष्य अपने धर्म का अनुष्ठान करता हुआ तब तक प्रतिमा आदि की पूजा करता रहे, जब तक उसे अपने हृदय में और संपूर्ण प्राणियों में स्थित परमात्मा का अनुभव न हो जाए।’
अगर किसी को परमात्म तत्व का अनुभव हो जाए तो उसके कर्म का स्वरूप ही बदल जाता है। अपने कर्मों से वह किसी भी प्राणी का अहित नहीं करता। वह अपनी वाणी और शरीर से दूसरे प्राणियों को कष्ट नहीं पहुंचाता। भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है, ‘अपने अपने स्वाभाविक कर्मों में तत्परता से लगा हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्ति रूप परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।’ इस विषय में महाभारत के शांतिपर्व में एक दृष्टांत आता है कि जाजलि मुनि ने बड़ी ही कठोर तपस्या करके उत्तम सिद्धि तो प्राप्त कर ली, परंतु गर्व के वशीभूत होकर कहने लगे कि मैंने धर्म को प्राप्त कर लिया। तभी एक आकाशवाणी हुई कि तुम धर्म में महाबुद्धिमान तुलाधार वैश्य की बराबरी नहीं कर सकते। तब जाजलि मुनि काशी में तुलाधार के पास गए और उन्होंने उसे अपनी दुकान पर सामान बेचते हुए देखा।
तुलाधार ने मुनि को देखकर कहा कि मैं आपके विषय में सब कुछ जानता हूं और आप मेरे पास आकाशवाणी को सुन कर आए हैं। मुनि ने पूछा कि तुम्हें ऐसा ज्ञान और धर्म में निष्ठा रखने वाली बुद्धि कैसे प्राप्त हुई? तुलाधार ने कहा कि किसी भी प्राणी से द्रोह न करके जीविका चलाना श्रेष्ठ धर्म माना गया है। मैं उसी धर्म के अनुसार जीवन निर्वाह करता हूं। मैं माल बेचने में किसी प्रकार के छल-कपट से काम नहीं लेता। जो मन, वाणी तथा कर्म से सबके हित में लगा रहता है, वही वास्तव में धर्म को जानता है। मैं न किसी से मेल-जोल बढ़ाता हूं, न विरोध करता हूं। मेरा न कहीं राग है, न द्वेष। संपूर्ण प्राणियों के प्रति मेरे मन में एक सा भाव है, यही मेरा व्रत है। मेरी तराजू सबके लिए बराबर तौलती है। मैं दूसरों के कार्यों की निंदा या स्तुति नहीं करता।
यह सच है कि बुद्धिमान मनुष्य सदाचार का पालन करने से शीघ्र ही धर्म का रहस्य जान लेता है। जिससे जगत का कोई भी प्राणी कभी किसी तरह का भय नहीं मानता, उसे संपूर्ण भूतों से अभय प्राप्त होता है। जिस समय पुरुष को दूसरों से भय नहीं होता, दूसरे भी उससे भय नहीं मानते, जब वह किसी से द्वेष या किसी वस्तु की इच्छा नहीं करता तथा किसी भी प्राणी के प्रति उसके मन में बुरे विचार नहीं उठते, जो सब प्राणियों को अपना ही शरीर समझता है तथा सबको आत्मभाव से देखता है, ऐसा मनुष्य अपना कर्म पूरी निष्ठा के साथ करते हुए परमात्म तत्व के उद्देश्य के साथ-साथ शांति को प्राप्त कर लेता है।